लम्बे समय तक लालू के हाथों अपनी उम्मीदों की ह्त्या होते देख बिहार की जनता ने आखिर उनके कुशासन का ऐसा अंत किया कि तबसे फिर दुबारा लालू को बिहार में अपने दम पर सत्ता का स्वाद नहीं मिल सका। मजबूरन अपने कट्टर विरोधी नीतीश के साथ मिलकर आज वे बिहार की सत्ता में साझेदार की भूमिका निभा रहे। सजायाफ्ता होने के कारण उनकी सांसदी भी नहीं रही है और चुनाव लड़ने पर भी प्रतिबन्ध लग चुका है। स्पष्ट है कि ये राजनीतिक रूप से लालू के लिए बहुत अच्छा समय नहीं है और अब इस समय के बदलने की गुंजाइश भी कम ही है। दरअसल दशकों से बिहार की राजनीति में लालू ने जो बोया था, अब वही काट रहे हैं।
बीती 6 मई को वरिष्ठ पत्रकार अर्नब गोस्वामी ने अपने चैनल “रिपब्लिक टी वी” में एक ऑडियो टेप जारी किया, जिसमें बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और चारा घोटाले में सजायाफ्ता लालू प्रसाद यादव जेल में बंद जघन्य अपराधी शहाबुद्दीन से फोन पर बतिया रहे हैं। यह बहुत थोड़ी सी बातचीत ही है, लेकिन चौकाने वाली है; क्योंकि कई जुर्मों का अपराधी शहाबुद्दीन वर्तमान में बिहार की सत्ता में साझेदार सबसे बड़ी पार्टी के प्रमुख को यह बता रहा है कि “आपका एसपी ख़तम (बेकार या लिजलिजा) है। हटाइए न ये सबको..” इस टेप की पूरे देश में निंदा हो रही है। होनी भी चाहिए। वैसे, लालू यादव भी अब साफ़ नहीं बचे हैं, वे भी सजायाफ्ता अपराधी ही हैं।
बहरहाल, विपक्षी पार्टी के नेताओं ने इस टेप के जरिये नीतीश पर भी निशाना साधा है और इस मामले की गंभीरता से जांच की माँग की है। भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद ने कहा कि ये बातचीत बिहार में महागठबंधन सरकार बनने के बाद की ही है। पिछले दिनों जब शहाबुद्दीन ने जेल से बाहर आया था तो उसने निकलते ही नीतीश कुमार को ‘परिस्थितियों के मुख्यमंत्री’ और अपना नेता लालू यादव को बता दिया था।
यह टेप और इसकी बातें कितनी सही हैं, यह जांच का विषय है; परन्तु इस पर आरजेडी या जेडीयू के तरफ से नेताओं की जो टिप्पणियां आई हैं, वह विचारणीय हैं। एक नेता जी ने तो यहाँ तक कह डाला कि “इसमें गलत क्या है ?” एक महाशय ने यह कहा कि “लालू जी ने खुद फोन थोड़े ही किया था, किसी ने करवा दिया बात तो कर ली।” सच है किसी से बात कर लेने में कोई हर्ज नहीं है, लेकिन ये जरूर है कि वह व्यक्ति कौन है ? एक साहब ने तो हद कर दी उन्होंने कहा कि “तरह -तरह की आवाज निकालने वाले कलाकार देश में हैं, कर दी होगी किसी ने शरारत।”
गौर करने वाली बात यह है कि एक तरफ जहां तमाम लोग अर्नब पर यह आरोप लगा रहे हैं कि उन्होंने अपने चैनल को विज्ञापित करने और उसकी टी आर पी बढ़ाने के उद्देश्य से ऐसी ‘सनसनी खबर’ गढ़ी है। वहीं दूसरी तरफ अर्नब का दावा है कि लालू यादव को इस खबर के प्रकाशित होने के बारे में पता चल चुका था और उनकी तरफ से अर्नब को यह खबर न प्रसारित करने के लिए 37 बार काल की गई, जिसका उन्होंने रिस्पांस नहीं दिया। अर्नब ने यह भी कहा कि उन्होंने अपना एक पत्रकार लालू प्रसाद के घर के बाहर खड़ा किया था, जिससे इस संदर्भ में कोई बात करने बाहर नहीं आया। इसी विषय पर सोशल मीडिया में एक वीडियो भी वायरल हुआ है, जिसमें लालू की तरफ से बात करने चैनल पर आए एक नेता को उठ कर जाते हुए दिखाया गया है।
दरअसल लालू और विवादों का साथ चोली-दामन का रहा है। लालू यादव की छवि कभी भी एक अच्छे राजनेता की नहीं रही। उन्हें हमेशा एक जुमलेबाज और ढीठ नेता ही माना गया। लालू के शासन के दौरान बिहार की क्या स्थिति रही, इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके शासनकाल को जंगलराज के रूप में याद किया जाता है।
लालू राज में बिहार में क़ानून व्यवस्था का नामो-निशान नहीं रह गया था और विकास किस चिड़िया का नाम है, इसकी तो कोई खबर भी नहीं थी। राजनीति में परिवारवाद ने निर्लज्जतापूर्वक सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए थे। इस प्रकार लम्बे समय तक लालू के हाथों अपनी उम्मीदों की ह्त्या होते देख बिहार की जनता ने आखिर उनके कुशासन का ऐसा अंत किया कि तबसे फिर दुबारा लालू को बिहार में अपने दम पर सत्ता का स्वाद नहीं मिल सका। मजबूरन अपने कट्टर विरोधी नीतीश के साथ मिलकर आज वे बिहार की सत्ता में साझेदार की भूमिका निभा रहे। सजायाफ्ता होने के कारण उनकी सांसदी भी नहीं रही है और चुनाव लड़ने पर भी प्रतिबन्ध लग चुका है।
स्पष्ट है कि ये राजनीतिक रूप से लालू के लिए बहुत अधिक अनुकूल समय नहीं है और अब इस समय के बदलने की गुंजाइश कम ही है। अब इस टेप काण्ड ने उनकी दिक्कत और बढ़ाई है, जिसपर अभी वह अपने विधि विशेषज्ञों से राय मशविरा कर ही रहे होंगे कि सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को चारा घोटाला केस में उनको बड़ा झटका देते हुए उनपर आपराधिक साजिश करने का मुकदमा चलाने का फैसला सुना दिया। कोर्ट ने नौ महीने के भीतर इसका ट्रायल पूरा करने का भी आदेश दिया है। ये उनके लिए एक और मुसीबत है। दरअसल कहा जाता है कि आदमी जो बोता है, वही काटता है। लालू यादव के साथ भी यही हो रहा। अब तो कठिनाई ये भी है कि इन मुसीबतों से बचने के लिए वह अपने पुराने दाँव-पेंच भी नहीं आजमा सकते, क्योंकि केंद्र में भी उनको बचाने वाली संप्रग सरकार नहीं है।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)