हालांकि पीओके को फारूक अब्दुल्ला पाकिस्तान का बता रहे हैं, पर क्या यह लोकसभा सदस्य यह भी नहीं जानता कि 22 फरवरी, 1994 को भारतीय संसद ने पीओके पर एक ऐतिहासिक फैसला लिया था। उस दिन भारत की संसद ने एक प्रस्ताव ध्वनिमत से पारित करके पीओके पर अपना हक जताते हुए कहा था, “पीओके सहित सम्पूर्ण जम्मू-कश्मीर भारत का अटूट अंग है। पाकिस्तान को उस भाग को छोड़ना होगा जिस पर उसने कब्जा जमाया हुआ है।”
फारूक अब्दुल्ला की जुबान अब बार-बार फिसलने लगी है। फारूक अब्दुल्ला लगता है जानबूझकर सुनियोजित ढंग से उलटबयानी करते हैं। फारूक अब्दुल्ला ने कहा कि जो हिस्सा पाकिस्तान के पास है, वो पाकिस्तान का ही कश्मीर है। भारत ने कश्मीर को धोखा दिया है। कुछ माह पहले फारुक अब्दुल्ला ने पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) पर भारत के दावे को लेकर कहा, “क्या यह तुम्हारे बाप का है?” उन्होंने आगे कहा, “पीओके भारत की बपौती नहीं है, जिसे वह हासिल कर ले”। उन्होंने पाकिस्तान के पक्ष में बोलते हुए कहा- “नरेंद्र मोदी सरकार पाकिस्तान के कब्जे से पीओके को लेकर तो दिखाए।”
मत भूलों 22 फरवरी,1994 को
हालांकि पीओके पर फारूक अब्दुल्ला बोले चले जा रहे हैं, पर क्या यह लोकसभा सदस्य यह भी नहीं जानता कि 22 फरवरी, 1994 को भारतीय संसद ने पीओके पर एक ऐतिहासिक फैसला लिया था। उस दिन भारत की संसद ने एक प्रस्ताव ध्वनिमत से पारित करके पीओके पर अपना हक जताते हुए कहा था कि पीओके सहित सम्पूर्ण जम्मू-कश्मीर भारत का अटूट अंग है। “पाकिस्तान को उस भाग को छोड़ना होगा जिस पर उसने कब्जा जमाया हुआ है।”
उस प्रस्ताव में कहा गया था, “ये सदन पाकिस्तान और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में चल रहे आतंकियों के शिविरों को दी जा रही ट्रेनिंग पर गंभीर चिंता जताता है कि उसकी तरफ से आतंकियों को हथियारों और धन की सप्लाई के साथ-साथ प्रशिक्षित आतंकियों को घुसपैठ करने में मदद दी जा रही है। यह सदन भारत की जनता की ओर से घोषणा करता है- (क) जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और रहेगा। भारत के इस भाग को देश से अलग करने का हर संभव तरीके से जवाब दिया जाएगा। (ख) भारत में इस बात की क्षमता और संकल्प है कि वह उन नापाक इरादों का मुंहतोड़ जवाब दे जो देश की एकता,प्रभुसत्ता और क्षेत्रियअंखडता केखिलाफ हो; और मांग करता है- (ग) पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर के उन इलाकों को खाली करे जिसे उसने कब्जाया हुआ है। (घ) भारत के आतंरिक मामलों में किसी भी हस्तक्षेप का कठोर जवाब दिया जाएगा।” फारूक साहब, क्या आप उसी सदन के सदस्य के रूप में उस 22 फऱवरी, 1994 को पारित प्रस्ताव को खारिज करते है?
सड़कछाप भाषा
क्या कोई फारूख अब्दुल्ला को बताएगा कि वो अब सड़कछाप भाषा बोलने लगे हैं? उनसे देश ने सड़कछाप भाषा के बोलने की कभी उम्मीद नहीं की थी। यह उन्हें क्या हो गया? जब संसद ने पीओके के देश से विलय संबंधी फैसला ले लिया तो उसके बाद बचता क्या है। पिछली 29 अप्रैल को फारूक अब्दुल्ला ने जम्मू-कश्मीर के अलगाववादियों से वार्ता नहीं करने के केंद्र के निर्णय पर चिंता जताई और कहा कि राज्य के भविष्य के लिए यह नीति ‘विनाशकारी’ हो सकती है।
पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए अब्दुल्ला ने कहा, ‘उच्चतम न्यायालय में केंद्र का यह हलफनामा कि वह अलगाववादियों से वार्ता नहीं करेगा, जम्मू-कश्मीर के भविष्य के लिए विनाशकारी है। हम इस रुख पर चिंता और दुख जताते हैं।’ क्या मतलब है फारूक अब्दुल्ला के इस तरह के बयान का? वे देश विरोधी और अलगावादियों से बातचीत के पक्ष में क्यों हैं? जो तत्व कश्मीर घाटी में भारत से आजादी के नारे लगाते हैं, जो पाकिस्तान के झंडे फहराते हैं, जो सेना के जवानों पर पथराव करते हैं उनसे देश क्यों बात करे? फारूक साहब मत भूलिए कि पूर्व में भी भारत में अलगाववादियों तत्वों से बात की गई है। क्या देश पाकिस्तान परस्त हुर्रियत के नेताओं से बात करे? यह तो बता दीजिये कि आप अलगाववादियों की पैरवी क्यों कर रहे हैं?
बोलते अनाप-शनाप
अब कभी-कभी लगता है कि फारूक अब्दुल्ला को शायद खुद नहीं मालूम होता कि वे चाहते क्या हैं? उन्हें अनाप-शनाप बोलने की आदत पड़ गई है। फारूख अब्दुल्ला ने सुकमा के नक्सली हमले की तुलना कुपवाड़ा के आतंकी हमले से करते हुए ऐसा बयान दिया है, जो घोर निंदनीय और राष्ट्रद्रोही बयान हैं। उन्होंने कहा कि कुपवाड़ा के शहीदों की शहादत को काफी बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा है जबकि सुकमा के शहीदों की कोई बात ही नहीं की जा रही है। सबको पता है कि जम्मू-कश्मीर के कुपवाड़ा के पंजगाम सेक्टर में आर्मी कैंप बीती 27 अप्रैल को आतंकी हमला हुआ था। आत्मघाती आतंकी हमले में एक कैप्टन, एक जेसीओ और एक जवान शहीद हो गए थे। सुरक्षाबलों के ऑपरेशन में दो आतंकी भी मारे गए।
चाहें सुकमा हो या कुपवाडा, सारा देश शहीदों का कृतज्ञ भाव से स्मरण कर रहा है। देश इन शहीदों के बलिदान को सदैव याद रखेगा। देश के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वालों को लेकर भेदभाव करने का कोई सपने में भी नहीं सोच सकता। पर फारूक अब्दुल्ला तो बोलते ही चले जा रहे हैं। आखिर देश अभिव्यक्ति की आजादी तो सबको देता ही है। लेकिन, बकवास की इजाजत तो नहीं देता ! उन्हें तो आकाशवाणी हुई है कि कुपवाड़ा तथा सुकमा के शहीदों में फर्क किया जा रहा है। हालांकि भेदभाव किस तरह से हो रहा है, वे इसका खुलासा नहीं करते।
पत्थरबाजों के साथ
और फारूक अब्दुल्ला ने हद तो बीती 14 अप्रैल को कर दी, जब वे सैनिकों पर पत्थर फेंकने वालों के समर्थन में खुलकर सामने आ गए। उन्होंने ना सिर्फ पत्थरबाजों का समर्थन किया बल्कि सरकार पर भी गंभीर आरोप लगा दिए। फारूक अब्दुल्ला मानते हैं कि अगर कुछ सीआरपीएफ के जवानों पर पत्थर मार रहे हैं तो कुछ सरकार द्वारा प्रायोजित भी हैं। यानी वे एक के बाद एक विवादास्पद बयान देते चले जा रहे हैं। फारूक अब्दुल्ला को खुद समझ नहीं है कि उनकी अनर्गल बयानबाजी देश हित में नहीं है। क्या कोई उन्हें समझाएगा कि ऐसे बयानों से भारत के दुश्मनों को खाद- पानी मिलता है?
(लेखक यूएई दूतावास में सूचनाधिकारी रहे हैं। वरिष्ठ स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)