अयूब पंडित के मामले को ही लें तो प्रख्यात वाम नेत्री वृंदा करात ने इसमें अलगाववादी नेता मीरवाइज को एकदम पाक साफ़ बता दिया तथा हिंसा करने वाली भीड़ से बातचीत की वकालत भी कर दी। ऐसे ही, वे बुद्धिजीवी जो कभी भीड़ द्वारा इखलाक की हत्या पर असहिष्णुता की ढोल पीटने में लगे थे, अयूब पंडित की हत्या पर खामोशी की चादर ओढ़े हुए हैं। कारण कि उस भीड़ के मज़हब और अयूब पंडित को मारने वाली भीड़ के मज़हब में अंतर है।
गत दिनों जम्मू-कश्मीर की राजधानी श्रीनगर के नौहट्टा स्थित जामिया मस्जिद से नमाज़ अदा करके निकली उन्मादी भीड़ ने मस्जिद के बाहर सुरक्षा इंतजामों के लिए मौजूद डीएसपी अयूब पंडित की निर्ममतापूर्वक पीट-पीटकर हत्या कर दी। उनपर भीड़ के इस हमले के सम्बन्ध में कई तरह की बातें सामने आ रही है।
बताया जा रहा कि नमाज़ अदा करके बाहर निकल रही भीड़ में मौजूद तमाम लोगों द्वारा की जा रही पाकिस्तान समर्थित नारेबाजी की वे रिकॉर्डिंग कर रहे थे। बस इसी कारण भीड़ उनपर चढ़ पड़ी और तबतक पीटती रही जबतक कि उनकी मौत नहीं हो गयी। वहीं एक तथ्य यह भी है अयूब पर हुए इस हमले के वक़्त अलगाववादी नेता मीरवाइज मस्जिद में मौजूद तकरीरे कर रहा था। भीड़ को हत्या के लिए उकसाने में मीरवाइज़ की संलिप्तता की भी बात की जा रही है।
अब चाहें वे भीड़ के उन्माद का शिकार बने हों या सुनियोजित ढंग से उत्प्रेरित लोगों के आक्रमण का, मगर यह सच्चाई है कि अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुए अयूब पंडित को अपनी जान गँवानी पड़ी है। यहाँ कई सवाल उठते हैं। ये भीड़ किस मानसिकता के लोगों की थी, जो इतने हिंसातुर थे कि कथित तौर पर अयूब का मोबाइल से रिकॉर्डिंग करना तक बर्दाश्त नहीं कर सके और इतने उत्तेजित हो गए कि उनकी जान लेकर माने। इस्लाम में नमाज़ अदा करने को चित्त की शांति का उपक्रम माना गया है, मगर ये कौन-से नमाज़ी थे कि इनके सीने में शांति के उलट हत्यारी मानसिकता धधक रही थी।
आंकड़े यह बताते हैं कि हाल के दो-तीन महीनों में कश्मीरी युवाओं ने अलगाववादियों की अपील को दरकिनार कर सेना व पुलिस में भर्ती होने के प्रति अपेक्षाकृत अधिक उत्साह दिखाया है, तो वहीं दूसरी तरफ यह भी एक तस्वीर दिख रही कि इसी दौरान राज्य में पत्थरबाजी और सुरक्षाबलों के प्रति भीड़ के हिंसात्मक प्रतिरोध में भी इजाफा हुआ है। दरअसल इन दोनों विपरीत स्थितियों से बहुत चकित होने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि इनके ज़रिये कश्मीर के जनमानस को समझने की आवश्यकता है।
सीधा संकेत यह है कि कश्मीर की आबादी का एक बड़ा वर्ग विकास की मुख्यधारा में शामिल होना चाहता है और धीरे-धीरे भारत के निकट आ रहा है। मगर, वहीं कुछ कश्मीरी ऐसे भी हैं जो पाक-प्रेरित अलगाववादियों के झाँसे और चंद रूपयों के लालच का शिकार होकर सुरक्षाबलों से लड़ रहे हैं। इसलिए कश्मीर की इस स्थिति को लेकर किसी प्रकार के सरलीकरण से बचते हुए इन दोनों तरह के लोगों से आवश्यकतानुसार अलग-अलग ढंग से निपटने की आवश्यकता है। सरकार और कश्मीर में तैनात सुरक्षाबल कमोबेश इसी ढंग से निपट भी रहे हैं।
हमारे जवान जहां हमला करने वालों को उन्हिकी भाषा में जवाब दे रहे, तो आम कश्मीरी लोगों की सुरक्षा भी सुनिश्चित कर रहे। इसके अलावा राज्य में कोई आपदा आने पर तो वे बिना किसी भेदभाव के जी-जान से कश्मिरिर्यों की मदद को उतर पड़ते हैं। बचाव कार्यों में जुट जाते हैं। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य बस इतना है कि हमारे जवान कश्मीर मामले को जितने बेहतर ढंग से संभाले हुए हैं, उससे बेहतर ढंग से इस अशांत और सीमावर्ती राज्य को वर्तमान परिस्थितियों में शायद ही कोई संभाल सकता है।
स्पष्ट है कि सेना यथासंभव सही ढंग से कश्मीर के हालातों से निपट रही है, मगर यह चीज देश के तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों और विचारधारा विशेष के बुद्धिजीवियों को रास नहीं आ रही। दरअसल कश्मीर इनके लिए हमेशा राजनीतिक तुष्टिकरण को साधने का एक आसान जरिया रहा है। बस इसलिए सेना के सही दिशा में बढ़ते क़दमों का ये आँख मूंदकर विरोध करने और जवानों को गलत ठहराने में लगे हैं। पत्थरबाजों से निपटने के लिए सेना के एक जवान ने एक पत्थरबाज को जीप के आगे बाँध दिया था, तब देश जहां इस रणनीति के लिए उस जवान की प्रशंसा कर रहा था, वहीं ये तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दल इसे कश्मीरियों पर सेना का अत्याचार बताने में लगे थे।
अयूब पंडित के मामले को ही लें तो प्रख्यात वाम नेत्री वृंदा करात ने इसमें अलगाववादी नेता मीरवाइज को एकदम पाक साफ़ बता दिया तथा हिंसा करने वाली भीड़ से बातचीत की वकालत भी कर दी। ऐसे ही, वे बुद्धिजीवी जो कभी भीड़ द्वारा इखलाक की हत्या पर असहिष्णुता की ढोल पीटने में लगे थे, अयूब पंडित की हत्या पर खामोशी की चादर ओढ़े हुए हैं।
इस खामोशी का कारण यह है कि उस भीड़ के मज़हब और अयूब पंडित को मारने वाली भीड़ के मज़हब में अंतर है। तभी तो ये कश्मीर में हुई हत्या की वारदात को कभी कथित गो-रक्षकों की हिंसा से तो कभी इखलाक के मामले जैसा बताने में लगे हैं, मगर हत्या करने वाली भीड़ के खिलाफ इनके मुंह से कुछ नहीं निकल रहा। ये समस्या से ध्यान भटकाने की कवायद भर है। अतः इनपर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है। सेना कश्मीर में सही दिशा में काम कर रही और जल्द ही स्थिति बेहतर होने की उम्मीद की जा सकती है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)