लालू यादव इस वक्त अपनी राजनीति के सबसे मुश्किल दौर से गुजर रहे हैं। खुद सजायाफ्ता है, बेटों और बेटी पर संगीन इल्जाम लग रहे हैं। नीतीश कुमार के साथ चलना उनकी मजबूरी है। लेकिन नीतीश कुमार की कोई मजबूरी नहीं है। जब-जब लालू यादव या उनकी पार्टी के लोग नीतीश कुमार को आंख दिखाने की कोशिश करते हैं, तो नीतीश कुमार एक महीन राजनीतिक चाल से सबको लाइन पर ले आते हैं। लालू यादव के ठिकानों पर छापे के बाद नीतीश कुमार ने बेहद सधा हुआ बयान दिया है।
चारा घोटाले में सजायाफ्ता लालू यादव और उनके बेटे बेटियों के ठिकानों पर छापेमारी हुई। आरोप है कि उनके रेल मंत्री रहते हजार करोड़ रुपए के आसपास बेनामी संपत्ति उनके बेटों और बेटियों के नाम पर की गईं। यह तो जांच के बाद साफ हो पाएगा कि इन आरोपों में कितना दम है, लेकिन लालू यादव एक बार फिर से भ्रष्टाचार के आरोपों में बुरी तरह से घिरते नजर आ रहे हैं। पटना में अस्सी लाख की मिट्टी खरीद का आरोप लालू यादव के बेटे पर लगा और उसके बाद तो दानापुर से लेकर दिल्ली तक में बेनामी संपत्ति की बात सामने आने लगी। शेल कंपनियों की मार्फत लेन-देन की बात भी सामने आ रही है। छापेमारी के बाद अब बिहार की गठबंधन सरकार को लेकर भी कयासबाज़ी का दौर शुरू हो गया है।
इन अटकलों को लालू यादव के एक ट्वीट ने ही हवा दी, जिसमें उन्होंने लिखा कि बीजेपी को नया साथी मुबारक हो। उनका इशारा साफ तौर पर नीतीश कुमार की ओर था। नीतीश कुमार की बीजेपी के साथ नजदीकियों की अटकलें समय-समय पर जोर पकड़ती हैं। लेकिन, लालू यादव को जल्द ही अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने दूसरे ट्वीट में सफाई दी। पहले ट्वीट और सफाई के बीच एक चतुर राजनेता की तरह उन्होंने नीतीश कुमार को संदेश दे दिया।
दरअसल लालू यादव के ठिकानों पर छापेमारी के पहले की घटनाओं को जोड़कर देखें तो एक तस्वीर नजर आती है । संभव है कि ये तस्वीर दूर की कौड़ी हो। छापे के एक दिन पहले एक टीवी चैनल के कार्यक्रम में बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह ने एलान किया था कि उनकी सरकार भ्रष्टाचारियों को किसी कीमत पर छोड़नेवाली नहीं है। उस कार्यक्रम में उन्होंने ये भी कहा था कि भ्रष्टाचारियों पर कार्रवाई को लेकर मीडिया सरकार पर राजनीतिक बदले की भावना से काम करने का आरोप ना लगाए।
अमित शाह के इस बयान के पहले पटना में नीतीश कुमार से जब लालू यादव पर लग रहे आरोपों के बारे में पूछा गया तो उन्होंने साफ तौर पर कहा था कि अगर लालू यादव पर लग रहे आरोपों में दम है तो केंद्रीय एजेंसी से जांच करा लें। इन बयानों के अगले ही दिन लालू यादव के ठिकानों पर छापेमारी हुई। हो सकता है कि इन बयानों में कोई साझा सूत्र नहीं हो, लेकिन इनके निहितार्थ तो ढूंढे ही जाएंगे। इनको जोड़कर देखा ही जाएगा।
लालू यादव पहले से ही भ्रष्टाचार के आरोप में सजा काट रहे हैं, लिहाजा इन आरोपों की वजह से वो परसेप्शन की लड़ाई में पिछड़ते नजर आ रहे हैं। लालू यादव भले ही इसको सांप्रदायिकता के खिलाफ अपनी लड़ाई करार दें, लेकिन जनता के मन में शायद ही लालू के बयानों का असर हो। पहले हर बात में लालू यादव सामाजिक न्याय की दुहाई दिया करते थे, इन दिनों वो सांप्रदायकिता को अपनी राजनीति का आधार बनाना चाहते हैं। सामाजिक न्याय इन दिनों नेपथ्य में चला गया है।
लालू यादव इस वक्त अपनी राजनीति के सबसे मुश्किल दौर से गुजर रहे हैं। खुद सजायाफ्ता है, बेटों और बेटी पर संगीन इल्जाम लग रहे हैं। नीतीश कुमार के साथ चलना उनकी मजबूरी है। लेकिन नीतीश कुमार की कोई मजबूरी नहीं है। जब-जब लालू यादव या उनकी पार्टी के लोग नीतीश कुमार को आंख दिखाने की कोशिश करते हैं, तो नीतीश कुमार एक महीन राजनीतिक चाल से सबको लाइन पर ले आते हैं। लालू यादव के ठिकानों पर छापे के बाद नीतीश कुमार ने बेहद सधा हुआ बयान दिया है।
नीतीश कुमार के बारे में कहा जाता है कि वो अपनी छवि को लेकर खासे सतर्क रहते हैं। इसके अलावा उनके प्रतिद्वंदी भी ये मानते हैं कि राजनीति में भविष्य को भांपने की कला में वो माहिर हैं। भविष्य को भांपकर ही उन्होंने राजनीति में अपने चिर प्रतिद्वंदी लालू यादव के साथ बिहार विधानसभा चुनाव के पहले गठबंधन कर लिया था। इस गठबंधन का लाभ भी उनको मिला। हो सकता है कि नीतीश कुमार को लग रहा हो कि अब अगले दस साल की राजनीति में भाजपा का विरोध करके कोई फायदा नहीं है। वो जिस दिन अपने इस आंकलन से कन्विंस हो जाएंगे, उस दिन उनको बीजेपी के साथ जाने में कोई संकोच नहीं होगा।
दूसरे नीतीश कुमार अगर विपक्ष की राजनीति में अपनी जगह तलाशते हैं, तो उनको ज्यादा से ज्यादा नंबर दो की हैसियत मिल सकती है; हालांकि ममता बनर्जी, नवीन पटनायक आदि के रहने से नंबर दो की पोजिशन हासिल करने में भी नीतीश को खासी मशक्कत करनी पड़ सकती है। विपक्षी एकता की धुरी इस वक्त कांग्रेस ही है और राष्ट्रीय पार्टी होने की वजह से उसका दावा भी यही होगा। अब राहुल गांधी के नेतृत्व में विपक्षी एकता कितनी हो पाएगी, इसमें भी संदेह है। विपक्षी दलों के नेताओं और पार्टियों के अपने इतने अंतर्रविरोध हैं कि सबको एक साथ लाना लगभग टेढ़ी खीर है।
यूपी में मायावती-अखिलेश को साथ लाना, पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और वामपंथियों को साथ लाना आसान नहीं है। सबकी अपनी-अपनी महात्वाकांक्षा है, सबके अपने अपने एजेंडे हैं, सबके अपने अपने सपने भी हैं। ऐसी परिस्थिति में नीतीश कुमार अगर बीजेपी के साथ जाते हैं, तो कम से कम बिहार में उनके लिए किसी तरह की चुनौती नहीं होनेवाली है। 2019 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर बीजेपी भी चाहेगी कि उसको बिहार में नीतीश कुमार जैसा मजबूत और बेदाग छवि वाला सहयोगी मिले। सारी स्थितियां किसी नए समीकरण की ओर संकेत कर रही हैं। हो सकता है कि ये आंकलन अभी काल्पनिक लगे, लेकिन इस वक्त के माहौल में इनको काल्पनिक कहकर खारिज नहीं किया जा सकता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)