प्रियंका गांधी कांग्रेस पार्टी में शायद ही कोई चमत्कार दिखा पाएं क्योंकि अभी तक वे पार्टी की प्राथमिक सदस्य भी नहीं थीं। उन्हें सीधे महासचिव का ओहदा देते हुए पूर्वी उत्तर प्रदेश में पार्टी को स्थापित करने का कार्य दे दिया गया। ऊंची कूद लोकतंत्र की प्रकृति के विरूद्ध होती है। ऐसे में यदि प्रियंका गांधी पार्टी कार्यकर्ता से अपनी राजनीतिक यात्रा शुरू करके क्रमश: पार्टी महासचिव के पद तक पहुंचती तो उनकी कामयाबी की अधिक संभावना बनती। लेकिन उनका आगमन परिवारवादी कांग्रेस में परिवारवाद को और बल देने वाला ही साबित हुआ है।
नरेंद्र मोदी-अमित शाह के नेतृत्व में भारतीय जनता की मजबूत घेरेबंदी और “तीसरे” व “चौथे” मोर्चे के गठन की कवायदों के बीच कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने अपने “ब्रह्मास्त्र” या आखिरी दाँव (प्रियंका गांधी) का प्रयोग कर ही दिया। प्रियंका गांधी को पार्टी महासचिव बनाते हुए उन्हें पूर्वी उत्तर प्रदेश में पार्टी की जिम्मेदारी दी गई है। कांग्रेस को उम्मीद है कि जनता प्रियंका गांधी में उनकी दादी (इंदिरा गंधी) की छवि देखेगी और कांग्रेस की सत्ता में वापसी होगी।
अब तक रायबरेली और अमेठी में होने वाले चुनावों के समय अवतरित होने वाली प्रियंका गांधी के जिम्मे पूर्वी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के परंपरागत वोटरों–ब्राह्मण, मुसलमान और दलित को वापस लाने की कठिन चुनौती है। फिलहाल ये तीनों वर्ग कांग्रेस से दूर जा चुके हैं और इस इलाके में जातिवादी राजनीति का बोलबाला है। ऐसे में प्रियंका गांधी कांग्रेस की खेवनहार बनेंगी या नहीं यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा।
गौरतलब है कि पिछले डेढ़ दशक से राहुल गांधी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को मजबूत करने में जुटे हैं लेकिन उन्हें कामयाबी हाथ नहीं लगी। अपने खोए हुए जनाधार को पाने के लिए राहुल गांधी ने कई नुस्खे भी अपनाए जैसे दलितों के घर भोजन करना, बुंदेलखंड पैकेज, एनआरएचएम घोटाले के विरोध में प्रदर्शन और किसानों के लिए आंदोलन। दुर्भाग्यवश केंद्र में कांग्रेस की सरकार होने के बावजूद राहुल गांधी की मुहिम वोटों में तब्दील नहीं हो पाई।
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की खोई हुई राजनीतिक जमीन हासिल करने के लिए राहुल गांधी ने कई बार नादानी का भी परिचय दिया। 2017 के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव जीतने के लिए उन्होंने एक साल पहले से प्रदेश की बदहाली का मुद्दा जोर शोर से उठाया और “27 साल यूपी बेहाल” का नारा दिया। लेकिन चुनाव से ठीक पहले राहुल गांधी ने उस समाजवादी पार्टी से चुनावी गठजोड़ कर लिया जो उत्तर प्रदेश की बदहाली के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार रही है। इसका नतीजा यह हुआ कि राहुल गांधी की सारी मेहनत बेकार गई और पार्टी महज सात सीटों पर सिमट गई।
प्रियंका गांधी कांग्रेस पार्टी में शायद ही कोई चमत्कार दिखा पाएं क्योंकि अभी तक वे पार्टी की प्राथमिक सदस्य भी नहीं थीं। उन्हें सीधे महासचिव का ओहदा देते हुए पूर्वी उत्तर प्रदेश में पार्टी को स्थापित करने का कार्य दे दिया गया। ऊंची कूद लोकतंत्र की प्रकृति के विरूद्ध होती है। ऐसे में यदि प्रियंका गांधी पार्टी कार्यकर्ता से अपनी राजनीतिक यात्रा शुरू करके क्रमश: पार्टी महासचिव के पद तक पहुंचती तो उनकी कामयाबी की अधिक संभावना बनती।
देखा जाए तो इसी प्रकार के हवाई प्रयोगों के चलते कांग्रेस उत्तर प्रदेश में ही नहीं पूरे देश में अपनी राजनीतिक जमीन खोती गई है। यह स्थिति एक दिन में नहीं आई है। कभी देश के हर गांव-कस्बा-तहसील से नुमाइंगी दर्ज कराने वाली पार्टी पिछले तीन दशकों से लगातार अपना जनाधार खोती जा रही है।
पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश जैसे कुछेक राज्यों को छोड़ दिया जाए तो जिस राज्य से कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई वहां उसकी वापसी नहीं हुई। यह बात विशेषरूप से उत्तर प्रदेश और बिहार के बारे में कही जा सकती है जो किसी जमाने में कांग्रेस के गढ़ हुआ करते थे। जिन राज्यों में कांग्रेस ने क्षेत्रीय पार्टियों के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ने की रणनीति अपनाई वहां आज वह तीसरे व चौथे पायदान पर है।
सबसे बड़ी समस्या यह है कि अपने सिकुड़ते जनाधार के बावजूद कांग्रेस पार्टी अपने पतन के कारणों की असली वजह न तलाशकर आसमानी प्रयोग करती रही है। इन प्रयोगों के बीच समय-समय पर “प्रियंका लाओ, कांग्रेस बचाओ” का नारा गूंजता रहा है। अब अहम सवाल यह है कि पिछले डेढ़ दशक से राहुल गांधी के तमाम उपायों के बावजूद कांग्रेस का जनाधार लगातार सिमटता जा रहा तो प्रियंका कौन सा चुनावी तीर मार लेंगी? एक सवाल यह भी उठता है कि यदि कांग्रेस का प्रियंका गांधी रूपी “ब्रह्मास्त्र” भी फेल हो गया तब कौन आएगा?
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)