आज जब हम आजादी की सत्तरवीं सालगिरह मना रहे हैं तो हमें ये भी याद रखना चाहिए कि भारत कोई एक दिन में आजाद भी नहीं हुआ था। आज जिस भूभाग को हम नक़्शे पर देखते हैं वो 1947 में बनना शुरू हुआ था। धीरे धीरे करीब 15 साल का समय बीतने के बाद, हमारे उस नक़्शे ने अपनी वो शक्ल ली जिसे हम आज देखते हैं। जिस 15 अगस्त 1947 को हम भारत के स्वाधीन होने की तारीख मानते हैं उसके काफी बाद तक भी हमारा स्वतंत्रता संग्राम चल रहा था। पुर्तगालियों के कब्जे से गोवा को छुड़ाने का आन्दोलन 1947 के बाद ज्यादा जोर पकड़ चुका था। ये दौर था 1950 का और इस दशक के शुरू में ही पुर्तुगाल NATO का सदस्य बन चुका था। ऐसे में जब हिंसक दमन से भी गोवा में सत्याग्रहियों को कुचलने में दिक्कत होने लगे तो पुर्तगाली सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से अपील की।
भारत की तरफ आस लगाये देख रहे गोवा को अब नेहरु से भी कोई उम्मीद नहीं रह गई थी। ऐसे में जन संघ के नेता जगन्नाथराव जोशी ने फिर से आन्दोलन की कमान थामी। कर्णाटक केसरी के नाम से विख्यात जगन्नाथराव जोशी अपने करीब 3000 समर्थकों के साथ महाराष्ट्र से गोवा की सीमा पार कर गए। इन सत्याग्रहियों में दर्ज़नों बच्चे और महिलाऐं भी थी। फिरंगी शासकों की पुलिस ने सत्याग्रहियों पर लाठी चार्ज किया। फिर निहत्थे सत्याग्रहियों पर गोलियां चला दी गई। कई लोग मारे गए, सैकड़ों घायल हुए, लेकिन आन्दोलन फिर से शुरू हो गया।
NATO की संधि किसी देश को सुरक्षा देती थी लेकिन उसके उपनिवेशों को नहीं। इसलिए पुर्तुगाल सरकार ने कहा कि गोवा उनके ही देश का हिस्सा है। सन 1954, में गोवा विमोचन सहायक समिति का गठन हुआ (All-Party Goa Liberation Committee), इनका उद्देश्य था कि सत्याग्रहियों को आर्थिक और राजनैतिक मदद जारी रखी जा सके। महाराष्ट्र और गुजरात के प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ने गोवा को महाराष्ट्र राज्य में विलय करने के उद्देश्य से भी मदद करनी शुरू कर दी। इन्होने 1954-55 के दौर में कई प्रदर्शन किये।
अब पुर्तुगाली सरकार ने जब अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से अपील की कि भारत उसकी सीमाओं में दखलंदाजी कर रहा है तो नेहरु पर दबाव बढ़ने लगा। नेहरु झुके और उन्होंने तय किया कि भारत सरकार अब सत्याग्रहियों को समर्थन नहीं देगी। नेहरु के इस कदम का सत्याग्रह पर गंभीर प्रभाव पड़ा। अब गोवा की सीमाएं पार करने के लिए होने वाले अह्वाहनों में बाकि भारत के लोगों को कम रूचि होने लगी। ऐसे में जब सत्याग्रहियों ने सीमा पार कर के तेरेखोल किले पर भारतीय झंडा फहराने की ठानी तो उसमें काफी कम समर्थक जुटे। इसके वाबजूद सत्याग्रहियों के एक छोटे से दल ने रातों रात गोवा की सीमा पार की और तेरेखोल के किले पर झंडा फहरा दिया।
विदेशी आक्रमणकारियों के खिलाफ मुहीम ढीली पड़ चुकी थी। इसके बाद भी All-Goa Political Party Committee, ने समर्थकों से अपील जारी रखी। 18 जून 1954, को सत्याग्रहियों ने सीमा पार कर के फिर से भारतीय झंडा फहरा दिया। सत्याग्रही और उनके समर्थक गिरफ्तार किये जाने लगे। कई लोगों को केवल शक की बिना पर जेल में डाल दिया गया। इन सत्याग्रहियों में डॉ. गायतोंडे और श्रीयुत देशपांडे भी थे। उन्हें गिरफ्तार करने के बाद पुर्तगाल भेज दिया गया।अब आन्दोलन काफ़ी धीमा पड़ चुका था। भारत की तरफ आस लगाये देख रहे गोवा को अब नेहरु से भी कोई उम्मीद नहीं रह गई थी।
ऐसे में जन संघ के नेता जगन्नाथराव जोशी ने फिर से आन्दोलन की कमान थामी। कर्णाटक केसरी के नाम से विख्यात जगन्नाथराव जोशी अपने करीब 3000 समर्थकों के साथ महाराष्ट्र से गोवा की सीमा पार कर गए। इन सत्याग्रहियों में दर्ज़नों बच्चे और महिलाऐं भी थी। फिरंगी शासकों की पुलिस ने सत्याग्रहियों पर लाठी चार्ज किया। फिर निहत्थे सत्याग्रहियों पर गोलियां चला दी गई। कई लोग मारे गए, सैकड़ों घायल हुए, लेकिन आन्दोलन फिर से शुरू हो गया।आजाद भारत के उन क्रांतिकारियों को भी आज याद किया जाना चाहिए जिन्होंने अपने प्राणों की आहुति देकर भी भारत की आजादी की जंग 1947 के बाद जारी रखी।
लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।