राहुल गांधी ने अपनी विश्वसनीयता स्वयं कम की है। चुनाव में सीट कम ज्यादा हुआ करती है। कभी सत्ता मिलती है, कभी विपक्ष में बैठना पड़ता है। लेकिन, नेतृत्व की विश्वसनीयता और विचारधारा जब कमजोर हो जाती है, तब मुश्किल होती है। कांग्रेस के सामने यही स्थिति है। गठबंधन में भी राहुल को अन्य पार्टियां इसी कारण ज्यादा अहमियत नहीं दे रहीं है। राहुल राजनीतिक माहौल को समझने की कोशिश नहीं करते। उनकी आदत रही है कि वे विरोध काकोई मोर्चा खोलते हैं, फिर आकस्मिक रूप से विदेश चले जाते हैं। राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद राहुल को गंभीर होना पड़ेगा, जिसकी उम्मीद कम ही है।
कांग्रेस कार्यसमिति ने अध्यक्ष पद के चुनाव की अनुमति दे दी है। सब कुछ योजना के अनुसार हुआ तो चुनाव की औपचारिकता पूरी कर राहुल संभवतः गुजरात चुनाव से पूर्व ही पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन जाएंगे। वैसे, इस प्रकार की चर्चाएं पहली बार नहीं चली हैं। यह चर्चा वर्षों से चल रही है। कई बार तारीखें आगे बढ़ती रहीं। लेकिन, चाहे जितनी देर हो, अध्यक्ष की कुर्सी राहुल को हो मिलनी थी। अब पहले की तरह राहुल अज्ञातवास पर न गए तो ताजपोशी तय है। राहुल ने भी मान लिया है कि अब देर करने से क्या फायदा। देर सबेर उन्हीं को यह कुर्सी स्वीकार करनी पड़ेगी।
यहां प्रश्न यह है कि राहुल के अध्यक्ष बनने का क्या प्रभाव होगा ? इस प्रश्न के दो पहलू हैं। पहला यह कि इससे राहुल की अपनी हैसियत में क्या बदलाव होगा। दूसरा यह कि इससे कांग्रेस को कितना लाभ होगा। जहाँ तक राहुल की बात है, उनकी अपनी हैसियत में किसी प्रकार का फर्क नहीं पड़ेगा। उपाध्यक्ष बनने से पूर्व वह संगठन में महामंत्री थे। वह किसी पद पर न होते तब भी उनका ऐसा ही महत्व रहता।
राहुल की माँ सोनिया गाँधी राष्ट्रीय अध्य्क्ष हैं। उन्होने राहुल को ही राजनीतिक उत्तराधिकार सौपने का निर्णय कर लिया था। दबे स्वर में प्रियंका गांधी को कमान सौपने की भी बात उठती थी। लेकिन, सोनिया गांधी ने इसे सिरे से खारिज कर दिया था। इसके बाद दूसरा कोई विकल्प ही नहीं था। परिवार आधरित पार्टियों की यह स्थापित परम्परा है। पार्टी में किसी की यह मजाल नहीं है कि वह राहुल की बात काट सके। कुछ नेताओं ने राहुल की क्षमता पर सवाल उठाए, तो उन सबको किनारे लगा दिया गया। यहाँ तक कि प्रियंका की पैरवी करने वाले भी नजरों से उतार दिए गए। स्पष्ट है कि राहुल की पार्टी में हैसियत पर किसी पद के चलते कोई उतार-चढ़ाव संभव नहीं है।
यह राहुल गांधी ही थे, जो अपनी सरकार के विधेयक को मंच से फाड़ कर फेंक सकते थे। ऐसा करने पर भी उनकी वाहवाही होती थी। सरकार में हलचल हो जाती थी। क्या मजाल कि उस समय के प्रधानमंत्री कुछ बोल जाएं। वह तो यह भी कहते थे कि राहुल जब चाहें वह प्रधानमंत्री का पद छोड़ देंगे। यह उस समय की बात है, जब राहुल केवल महामंत्री थे।
संगठन में उनके जैसे कई महामंत्री थे। लेकिन राहुल का जलवा अलग था। ऐसे में यह गलतफहमी नहीं होनी चाहिए कि अध्यक्ष बनने से की हैसियत बढ़ जाएगी। कांग्रेस वह आज भी उसी मुकाम पर है। इतना अवश्य है कि औपचारिकता का निर्वाह अवश्य हो जाएगा। जहां तक पार्टी का प्रश्न है, राहुल की जबाबदेही अवश्य बढ़ जाएगी। अभी तक विफलता में भी उनका बचाव हो जाता था। लेकिन जब औपचारिक रूप से वह शीर्ष पद पर रहेंगे, तो उसी के अनुरूप जबाबदेही भी होगी।
जहां तक पार्टी का प्रश्न है, राहुल से फिलहाल कांग्रेस को बहुत उम्मीद नहीं करनी चाहिए। उनका चुनावी रिकॉर्ड सन्तोषजनक नहीं रहा है। कांग्रेस इस समय अपने सबसे खराब दौर में है। इस स्थिति में उनके अध्यक्ष बनने के बाद भी कोई चमत्कार होगा, ऐसी कोई संभावना नहीं दिखती।
किसी राजनीतिक दल का मूल्यांकन कई आधारों पर होता है। एक यह कि उसे चुनाव में कितनी सफलता मिल रही है। दूसरा, उसकी विचारधारा क्या है। तीसरा यह कि उसके शीर्ष नेता की विश्वसनीयता कितनी है। राहुल के नेतृव में कांग्रेस सफलता के लिए तरस रही है। केंद्र के अलावा महाराष्ट्र, हरियाणा, असम जैसे राज्य उसके हाथ से निकल गए। बिहार का गठबंधन चल नहीं सका। लालू यादव के साथ से कांग्रेस की प्रतिष्ठा नहीं बढ़ी है। जबकि सभी जगह राहुल शीर्ष स्टार प्रचारक थे। चुनाव प्रबंधन के अंतिम निर्णय उन्हीं के होते थे। उत्तर प्रदेश में कुमार प्रशांत को प्रबंधन देना उन्हीं का निर्णय था। सत्ताईस साल यूपी बेहाल से उनका चुनाव प्रचार शुरू हुआ और सपा से गठबंधन तक पहुंच गया। परिणाम सबके सामने है।
मतलब कांग्रेस सीट में भी बहुत पीछे रह गई और विचारधारा भी कहीं दिखाई नहीं दी। राहुल गांधी ने अपनी विश्वसनीयता स्वयं कम की है। चुनाव में सीट कम ज्यादा हुआ करती है। कभी सत्ता मिलती है, कभी विपक्ष में बैठना पड़ता है। लेकिन, नेतृत्व की विश्वसनीयता और विचारधारा जब कमजोर हो जाती है, तब मुश्किल होती है। कांग्रेस के सामने यही स्थिति है। गठबंधन में भी राहुल को अन्य पार्टियां इसी कारण ज्यादा अहमियत नहीं दे रहीं है।
राहुल गांधी राजनीतिक माहौल को समझने की कोशिश नहीं करते। उनकी आदत रही है कि वे विरोध काकोई मोर्चा खोलते हैं, फिर आकस्मिक रूप से विदेश चले जाते हैं। राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद राहुल गांधी को अपनी गम्भीरता बढ़ानी होगी। मोदी का विरोध करना उनका अधिकार है, लेकिन इसकी भी एक सीमा का निर्धारण करना चाहिए ताकि विरोध अंधविरोध न बने। बहरहाल, मोटे तौर पर बात यही है कि राहुल के अध्यक्ष बनने से कांग्रेस में कुछ विशेष होने की उम्मीद नहीं की जा सकती।
(लेखक हिन्दू पीजी कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)