राजनीति में हार-जीत स्थायी नहीं होती है। यह एक क्रम है जो कभी इस पाले तो कभी उस पाले के अनुकूल होता है। आजादी के बाद नेहरु से शुरू हुई कांग्रेस इंदिरा गांधी से होते हुए राजीव, सोनिया और राहुल गांधी तक पहुंची है। इस दरम्यान लगभग पांच दशकों तक कांग्रेस सत्ता में रही है, जिसमें लगभग तीन दशक से ज्यादा सत्ता के शीर्ष पर नेहरु का परिवार रहा है। अब केंद्र की सत्ता बेशक कांग्रेस के पास नहीं है, लेकिन कांग्रेस आजतक नेहरु-गांधी परिवार से आने वाले नेतृत्व के भरोसे ही बैठी आस लगा रही थी। इसी कड़ी में, राहुल गांधी आयेंगे, कांग्रेस को बचायेंगे की आस में कांग्रेसियों के हाथ से २०१४ में देश तो उसके बाद तमाम राज्य निकल गये। हरियाणा, असम, महाराष्ट्र, झारखंड जैसे राज्यों में राहुल गांधी कांग्रेस को हार से नहीं बचा पाए। हालांकि अंदरखाने कांग्रेस में एक धड़ा यह बात जरुर करता है कि राहुल गांधी में नेतृत्व की क्षमता नहीं है। लेकिन बावजूद इसके कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी से इतर कांग्रेस को ले जाने की कोई नीति नहीं बना पा रहे हैं।
प्रचार और पीआर का सहारा लेना बुरी बात नहीं है और यह सभी के लिए समय की मांग है, लेकिन प्रचार एजेंसी इस स्तर की न हो कि नेता कहीं पीछे छूट जाए और पीआर के लोग नेता बनकर फ्रंट से रणनीति बनाएं। राहुल और कांग्रेस की छवि को चमकाने के लिए प्रशांत किशोर को जबसे लाया गया है, राहुल गांधी से ज्यादा चर्चा प्रशांत किशोर की हो रही है। ऐसा लग रहा है मानो चुनाव कांग्रेस नहीं प्रशांत किशोर लड़ रहे हों। कांग्रेस जैसी पुरानी पार्टी के लिए इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण भला और क्या होगा कि नेता गौण है और पीआर एजेंसी चर्चा में है!
राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस अपने बूते सरकार बनाना तो दूर चंद सीटों पर लड़ने की स्थिति में भी नहीं दिखाई दे रही है। बिहार जैसे राज्यों में उसे लालू-नितीश के शरण में जाकर तीसरे-चौथे दल के रूप में नतमस्तक होना पड़ता है तो बंगाल में कम्युनिस्टों के साथ गलबाहियां करनी पड़ती है। असम चुनाव में कांग्रेस के पोस्टर्स में राहुल गांधी से बड़ी फोटो देशद्रोह के आरोपी कन्हैया कुमार की दिखाई देती है। यानी असम प्रदेश कांग्रेस को राहुल गांधी से ज्यादा भरोसा कन्हैया कुमार पर था, लेकिन वह हथकंडा भी उन्हें बचा न सका। अब तो सोशल मीडिया पर यह मजाक आम हो चुका है कि कांग्रेस खुद भी राहुल गांधी को सीधे प्रचार में उतारने से डर रही है। कारण है, जहं-जहं पाँव पड़े राहुल के….! राहुल गांधी जहाँ भी जा रहे हैं, वहां हार का क्षेत्रफल और बड़ा होता जा रहा है।
खैर, अब यूपी चुनाव सिर पर है। ऐसे में कांग्रेस राहुल गांधी पर खुलकर भरोसा नहीं दिखा पा रही है। इसबार उन्होंने प्रशांत किशोर की पीआर एजेंसी का सहारा लिया है। वैसे देखा जाय तो प्रचार और पीआर का सहारा लेना बुरी बात नहीं है और यह सभी के लिए समय की मांग है, लेकिन प्रचार एजेंसी इस स्तर की न हो कि नेता कहीं पीछे छूट जाए और पीआर के लोग नेता बनकर फ्रंट से रणनीति बनाएं। राहुल और कांग्रेस की छवि को चमकाने के लिए प्रशांत किशोर को जबसे लाया गया है, राहुल गांधी से ज्यादा चर्चा प्रशांत किशोर की हो रही है। ऐसा लग रहा है मानो चुनाव कांग्रेस नहीं प्रशांत किशोर लड़ रहे हों। कांग्रेस जैसी पुरानी पार्टी के लिए इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण भला और क्या होगा कि नेता गौण है और पीआर एजेंसी चर्चा में है! जनता के बीच जाकर अपनी बात समझा पाने में असफल हो चुके राहुल गांधी के लिए प्रशांत किशोर ने ‘खाट पर चर्चा’ अभियान शुरू किया है। इसकी शुरुआत पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले से की गयी है। सूत्र बताते हैं कि इसके लिए बाकायदे कई सौ ‘खाट’ देवरिया में मंगाए गये हैं। चूँकि, मेरा गृह जनपद देवरिया है और मै जानता हूँ कि पूर्वी उत्तरप्रदेश के देवरिया जिले अथवा पड़ोस के जिलों में ‘खाट’ शब्द न तो बोलचाल के चलन में है और न ही इसे कोई वहां प्रयोग करता है। यह हरियाणा और पश्चिमी यूपी में प्रयोग होने वाला शब्द है। देवरिया में खाट को ‘खटिया’ बोलते हैं। लेकिन जनता से जुड़कर उसकी भाषा में बात करने की बजाय पीआर एजेंसी के भरोसे अभियान चलाने का यह फर्क है कि आप जहाँ अभियान चला रहे होते हैं वहां कि संस्कृति, भाषा से नावाकिफ होते हैं। खैर, राहुल गांधी से तो ऐसी समझ की उम्मीद करना भी बेमानी है, लेकिन प्रशांत किशोर भी ऐसा कर रहे हैं तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं क्योंकि वे जनता के बीच के कार्यकर्ता नहीं, बल्कि एक पीआर मैनेजर हैं। राहुल गांधी अथवा प्रशान्त किशोर ने एकबार देवरिया के किसी लोकल कार्यकर्ता से सलाह ले लिया होता तो शायद यह गलती वे नहीं करते। दरअअसल जिसे कांग्रेस ‘खाट पर चर्चा’ का नाम दे रही है वो सिवाय ‘खाट पर खर्चा’ के कुछ नहीं है! कांग्रेस को इस खर्चे से बचना चाहिए।
हालांकि यूपी चुनाव में जिस तरह से राहुल गांधी चुनावी सीन में पीछे हैं और प्रशांत किशोर चर्चा में हैं, इससे यह लगता है कि अब राजनीति में कांग्रेस का खुद से भरोसा उठ गया है, राहुल गांधी से उठ गया है, अपने कार्यकर्ताओं से उठ गया है। वरना राहुल गांधी को ये दिन न देखना पड़ता कि एक पीआर मैनेजर उनसे ज्यादा चर्चा के केंद्र में है! वैसे भी, कांग्रेस अपने पतन के अंतिम छोर पर साँसे ले रही है। ऐसे में ‘मरता क्या न करता’ को चरितार्थ करते हुए वो तमाम गलतियों के बीच एक यह गलती भी कर रहे हैं तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हालांकि प्रशांत किशोर भी राहुल गांधी पर कोई रिस्क नहीं लेना चाहते हैं। शायद उन्हें डर होगा कि अगर राहुल गांधी का नाम आगे आया तो उनके पीआर के इस बिजनेस पर भी बड़ा बट्टा लगते देर नहीं लगेगी। वैसे, चुनावी पंडित यह मान चुके हैं कि यह चुनाव उस भ्रम को भी तोड़ेगा कि इस देश की राजनीति को पीआर के हथकंडों से हार-जीत में बदला जा सकता है।
(लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च फेलो हैं और नेशनलिस्ट ऑनलाइन डॉट कॉम के सम्पादक हैं।)