पिछले लगभग एक सप्ताह से ‘तीन तलाक़’ पर मची रार के बीच जो प्रतिक्रियाएं आ रही हैं, जिस तरह से तमाम रोना-धोना मचा है, उसमें से छान कर तीन तरह की प्रतिक्रियाएं आप नमूने के तौर पर रख सकते हैं। पहली श्रेणी में वे मुसलमान हैं, जिनके मुताबिक ‘कुरान’ का ही आदेश अंतिम आदेश है, उसमें कोई फेरबदल नहीं किया जा सकता, चाहे कितनी भी विकृत प्रथा हो, उसको सुधारा नहीं जा सकता और अगर ऐसा करने की कोशिश की गयी, तो गृहयुद्ध होगा। गजवा-ए-हिंद या फिर दारुल-इस्लाम की चाह लिए इस कबीलाई मानसिकता के प्रतिनिधि वही पीरजादा हैं, जो कहते हैं- मैं पहले मुस्लिम हूं, फिर भारतीय हूं। (यहां आप केवल एक सेकंड के लिए बस सोचकर देखिए कि किसी हिंदू ने यह बयान दिया होता, तो किस तरह का कोहराम मचा होता)।
दूसरी मानसिकता उन डरे-सहमे लोगों की है, जो ‘तीन तलाक’ को खारिज तो करवाना चाहते हैं, लेकिन डर के मारे यह नहीं कह पाते कि शरिया की जितनी भी कालबाह्य या रद्दी बातें हैं, उनको हटा फेंको। वे घूम-फिर कर आपको यही बताएंगे कि इस्लाम तो सबकी बराबरी और हको-हकूक की बात करता है, ये तो इस्लाम की ग़लत व्याख्या है, जो महिलाओं के साथ इतनी नाइंसाफी हो रही है। शाइस्ता अंबर इसी धारा की प्रतिनिधि हैं, जो ‘तीन तलाक’ को तो रद्द करवाना चाहती हैं, लेकिन यह भी जोड़ देती हैं कि उनको यूनिफॉर्म सिविल कोड नहीं चाहिए। (बस, यहां ज़रा यह सोच लीजिए कि हिंदू अगर कह दें कि उनकी धार्मिक मान्यताएं अपरिवर्तनीय हैं, तो दही-हांडी से लेकर किसी भी बात पर संज्ञान लेनेवाला सुप्रीम कोर्ट क्या करेगा?)
शरिया के आधार पर तलाक़ की कैसी भी व्यवस्था, दूसरे समुदाय की महिलाओं को कानूनी माध्यम से मिलने वाली रक्षा, सहूलियत और अधिकारों से मुस्लिम महिलाओं को वंचित करती है। आधारभूत तौर पर शरिया क्या है ? मध्यकालीन कबीलाई समाज़ को दिया गया कुछ कानूनों का समुच्चय ही तो। यह भला 2016 के भारत में कैसे लागू हो सकता है, जबकि खुद इस्लाम के नाम पर चल रहे 21 देशों ने इसे ख़त्म कर दिया है ? यह भी कितनी मज़ेदार बात है कि तलाक़ का आधार तो मध्यकालीन बर्बर कबीलाई कानून हो और उसे अंजाम ह्वाट्सएप और ई-मेल जैसे अत्याधुनिक साधनों से दिया जाए। यह तो सचमुच दोहरेपन की पराकाष्ठा है।
तीसरी और सबसे ख़तरनाक मानसिकता वाले तथाकथित प्रगतिशील मुसलमान हैं। ये अपनी प्रगतिशीलता के आवरण में कट्टरपंथ को समेटे रहते हैं। भारतीय वामी भी इसी कौम के समर्थक हैं। ये इसलिए अधिक ख़तरनाक हैं, क्योंकि इनका कट्टरपंथ छुपा हुआ है, ढंका हुआ है। वृंदा करात जैसी ही शैंपेन की सी खनखनाती अंग्रेजी बोलनेवाली यह तथाकथित प्रगतिशील मुस्लिम बिरादरी अपनी आस्तीन में इस्लाम का खंज़र छुपा कर चलती है। इनके नुमाइंदों से जब आप पूछेंगे कि ‘तीन तलाक’ पर उनकी क्या राय है, तो वे जलेबी छानेंगे। वे कहेंगे कि झटके वाला तीन तलाक़ (instant triple talaq) बैन हो जाने के पक्ष में तो वे हैं, लेकिन मुस्लिम समाज में शरीयत के मुताबिक ही तलाक़ जारी रहने दिया जाए। इस्लामिक पर्सनल लॉ को हटाने की तो सोचना भी इनकी नज़रों में गुनाह-ए-अज़ीम हो जाएगा। इन पाखण्डी प्रगतिशील मुसलमानों और वामपंथियों का यह नया पैंतरा है। बहुत महीन तरीके से ‘तीन तलाक़’ को जायज़ ठहराने की एक अफ़सोसनाक कोशिश है।
एक चौथी प्रजाति भी है, वामी पाखंडियों की। इस वामपंथी गिरोह का तो कहना ही क्या? उनके ही वैचारिक पितृपुरुष गंगाधर अधिकारी ने जब पाकिस्तान की प्रस्तावना लिखी, तो आज वृंदा करात और उनकी ब्रिगेड भला पीछे क्यों रहें ? उन्होंने तो वैसे भी इस्लामिक कट्टरपंथ को हमेशा से खाद-पानी दिया है। देश आज फिर एक बार 1947 ईस्वी के समय को मानो दुहरा रहा है। तब भी, कई ने कहा था- हम मुसलमान पहले हैं, हिंदुस्तानी बाद में। नतीज़ा था – पाकिस्तान। आज़ फिर, देश को तय करना है। वहीं ये तीसरी और चौथी प्रजाति भूल जाते हैं कि तलाक़ दो व्यक्तियों के बीच एक ‘मुद्दा’ है, भले ही आपसी सहमति से हो तो भी। वहां एक पक्ष (यहां मुस्लिम महिलाएं) को कोई अधिकार नहीं देना, उसे वंचित रखना और तलाक की सूरत में किसी ‘मुद्दे’ को किसी समुदाय के लिए कानूनी सीमा से बाहर रखना, उस समुदाय में पुरुषों की मनमानी को बनाए रखने की साज़िश ही तो है। अफसोस, यह साज़िश तो वृंदा करात को नहीं दिखती, पर नरेंद्र मोदी नीत सरकार द्वारा समान नागरिक संहिता थोपने की कथित ‘साजिश’ वह दूर से ही सूंघ लेती हैं।
शरिया के आधार पर तलाक़ की कैसी भी व्यवस्था, दूसरे समुदाय की महिलाओं को कानूनी माध्यम से मिलने वाली रक्षा, सहूलियत और अधिकारों से मुस्लिम महिलाओं को वंचित करती है। आधारभूत तौर पर शरिया क्या है ? मध्यकालीन कबीलाई समाज़ को दिया गया कुछ कानूनों का समुच्चय ही तो। यह भला 2016 के भारत में कैसे लागू हो सकता है, जबकि खुद इस्लाम के नाम पर चल रहे 21 देशों ने इसे ख़त्म कर दिया है ? यह भी कितनी मज़ेदार बात है कि तलाक़ का आधार तो मध्यकालीन बर्बर कबीलाई कानून हो और उसे अंजाम ह्वाट्सएप और ई-मेल जैसे अत्याधुनिक साधनों से दिया जाए। यह तो सचमुच दोहरेपन की पराकाष्ठा है।
सुप्रीम कोर्ट ने आज से डेढ़ दशक पहले ही इस इस झटके वाले तीन तलाक़ को गैर-इस्लामी क़रार दिया है, इसके बाद कई अन्य हाईकोर्ट्स ने भी इसी केस को नज़ीर मानकर फैसले दिए हैं। इसके बावजूद अगर ऐसे मामले बदस्तूर जारी हैं, तो समझा जा सकता है कि मुस्लिम समाज में तलाक़ की व्यवस्था महिलाओं के उत्पीड़न का औज़ार बनी हुई है। सायरा बानो के जिस केस से तीन तलाक़ का मुद्दा फिर गर्माया हुआ है, उसमें भी सारे पहलुओं पर विचार के बाद ही सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से तीन तलाक़ पर राय मांगी थी, ना कि पहले से ही खारिज किए जा चुके झटके वाले ‘तीन तलाक़’ पर।
अच्छा, आप इन तथाकथित प्रगतिशील मुसलमानों या वामियों की दलील सुनेंगे, तो आप या तो आपका माथा चकरा जाएगा। मुसलमान जो सबसे अधिक दलील देते हैं, वह यह कि शरिया के मुताबिक तीन महीने वाले (जिसमें एक महीने के अंतराल पर तीन पर बार तलाक कहा जाए) तीन तलाक़ से किसी मुस्लिम महिला को दिक्कत नहीं है, दिक्कत है तो बस झटके वाले तीन तलाक़ से। हालांकि, नवंबर 2015 में जारी हुए भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन की रिपोर्ट के मुताबिक मुस्लिम महिलाओं के बीच हुए सर्वे में 92% महिलाओं ने तीन तलाक़ पर क़ानूनी बैन की मांग की है।
इन प्रगतिशीलों से ज़रा पूछा जाए कि तीन महीने बाद ही सही, लेकिन शरीयत के आधार पर तीन तलाक़ के ज़रिए खुद को बीवी से अलग कर मुस्लिम मियां तो बड़े आराम से नए जीवन की ओर बढ़ सकता है, लेकिन उसकी बीवी का क्या ? शाहबानो कांड याद है कि नहीं, मियां ? उसमें तो खैर, राजीव गांधी ने आप लोगों को खुश करने के लिए सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था तक को रद्द कर दिया, लेकिन आज कितनी शाहबानो और इमराना इन अजीबोगरीब मुस्लिम रिवाज़ों के नाम पर दमघोंटू अंधेरे में कैद हैं, इस पर भी सोचने की जरूरत है। 90 दिनों के तलाक़ के बाद भी बीवी संविधान और क़ानून सम्मत अधिकारों से वंचित हो जाती है।
मुल्ला-मौलवी और तथाकथित प्रगतिशील मुसलमान इतने पाखण्डी और बेशर्म हैं कि तीन तलाक के लिए घरेलू हिंसा की दलील भी दे डालते हैं। वे कहते हैं कि घरेलू हिंसा से तो बेहतर है कि तीन तलाक़ को अपना लिया जाए। क्या इस दलील में घरेलू हिंसा को एक स्थापित परंपरा की तरह पेश नहीं किया जा रहा है। दरअसल, ये प्रगतिशील बड़े चालाक और उतने ही कट्टर धर्मांध भी हैं। आप तीन तलाक़ को एक सिरे से खारिज करें तो झटके वाले तीन तलाक और शरीयत के मुताबिक तीन तलाक़ के अंतर को समझाकर आपको बताया जाएगा कि आपकी बात बेवजह है।
सवाल इस बात का नहीं है कि ये वामपंथी गिरोह और कठमुल्ले क्या सोचते हैं ? दरअसल यूनिफॉर्म सिविल कोड ही एकमात्र रास्ता है, जो हमारे देश को सही मायनों में धर्मनिरपेक्ष बनाएगा। सवाल इस बात का भी है कि आखिर 1400 साल पहले की कोई व्यवस्था अगर प्रतिगामी (Regressive) है, तो हम उस मज़हबी मान्यता को ख़त्म क्यों नहीं करेंगे। भारत में हिंदुओं की भी अनेकानेक प्रतिगामी मान्यताओं को कचरे के ढेर पर डाल दिया गया है, फिर मुस्लिम बिरादरी से इतना खौफ क्यों ? इनकी जो भी मान्यताएं अमानवीय हैं, उन्हें केवल आसमानी बताने के नाम पर जायज़ नहीं ठहराया जा सकता। सरकार को अविलंब यूनिफॉर्म सिविल कोड लाना ही चाहिए।
(लेखक पेशे से पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)