भारत में अल्पसंख्यक कौन ?

भारत में अल्पसंख्यक कौन ? यह सवाल अकसर उठता रहता है, लेकिन इसका माकूल जवाब अभी तक नहीं मिल सका है। सुप्रीम कोर्ट में जम्मू-कश्मीर के एक वकील द्वारा दायर की गयी जनहित याचिका में इस संबंध में भाषा और धर्म के आधार पर अल्पसंख्यक समुदाय के पहचान को परिभाषित करने की मांग की गयी है। चूँकि 2011 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक़ जम्मू-कश्मीर में 68 फीसद जनसंख्या मुसलमानों की है। अत: जनसंख्या के आधार पर इस राज्य में मुसलमान किसी भी दृष्टिकोण से अल्पसंख्यक नहीं कहे जा सकते हैं। अल्पसंख्यक समुदाय को चिन्हित नहीं करने की वजह से जम्मू-कश्मीर में अल्पसंख्यकों को दिया जाने वाला हर लाभ मुसलमानों को मिल रहा है, जबकि वहां जो समुदाय वास्तविक रूप से अल्पसंख्यक है, वो उन सुविधाओं से महरूम हैं। एक टीवी चैनल की रिपोर्ट के मुताबिक़ वर्ष 2016-17 में अल्पसंख्यकों के लिए निर्धारित प्री-मैट्रिक स्कॉलरशिप का फायदा जिन छात्रों को मिला है, उनमे 1 लाख 5 हजार से अधिक छात्र मुसलमान समुदाय से आते हैं, जबकि सिख, बौद्ध, पारसी और जैन धर्म के 5 हजार छात्रों को इसका फायदा मिल सका है। इसमें भी हिन्दू समुदाय के किसी भी छात्र को इसका फायदा नहीं मिला है, जबकि जनसंख्या के आधार पर जम्मू-कश्मीर में हिन्दू मुसलमानों से बहुत कम हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 29 और 30 के तहत उन लोगों के लिए कुछ अलग से प्रावधान किया गया है जो भाषा और धर्म के आधार पर अल्पसंख्यक श्रेणी में आते हैं। लेकिन इसकी सटीक व्याख्या और परिभाषा नहीं होने की वजह से इसका बड़े स्तर पर दुरुपयोग भी हो रहा है। जम्मू-कश्मीर इसके दुरुपयोग का ताजा उदाहरण है। हालांकि ऐसा नहीं है कि यह मामला महज जम्मू-कश्मीर तक सीमित है। इसको अगर ध्यान से देखें तो भारत के तमाम हिस्सों में अल्पसंख्यक शब्द को परिभाषित नहीं किए जाने की वजह से किसी समुदाय के साथ अन्याय हो रहा है।

2011 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक़ जम्मू-कश्मीर में 68 फीसद जनसंख्या मुसलमानों की है। अत: जनसंख्या के आधार पर इस राज्य में मुसलमान किसी भी दृष्टिकोण से अल्पसंख्यक नहीं कहे जा सकते हैं। अल्पसंख्यक समुदाय को चिन्हित नहीं करने की वजह से जम्मू-कश्मीर में अल्पसंख्यकों को दिया जाने वाला हर लाभ मुसलमानों को मिल रहा है, जबकि वहां जो समुदाय वास्तविक रूप से अल्पसंख्यक है, वो उन सुविधाओं से महरूम हैं। एक टीवी चैनल की रिपोर्ट के मुताबिक़ वर्ष 2016-17 में अल्पसंख्यकों के लिए निर्धारित प्री-मैट्रिक स्कॉलरशिप का फायदा जिन छात्रों को मिला है, उनमे 1 लाख 5 हजार से अधिक छात्र मुसलमान समुदाय से आते हैं; जबकि सिख, बौद्ध, पारसी और जैन धर्म के 5 हजार छात्रों को इसका फायदा मिल सका है। लेकिन, जनसंख्या के लिहाज से राज्य में मुसलामानों से बेहद कम हिन्दू समुदाय के एक भी छात्र को इसका लाभ नहीं मिला है

दरअसल अल्पसंख्यक उस समुदाय को माना जाता है, जिसे अल्पसंख्यक कानून के तहत केंद्र की सरकार अधिसूचित करती है। भारत में मुस्लिम, सिख, बौध, इसाई, पारसी और जैन समुदाय को अल्पसंख्यक के तौर पर अधिसूचित किया गया है। हालांकि केंद्र के राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग की तर्ज पर राज्यों में भी अल्पसंख्यक आयोग की शुरुआत हुई, लेकिन अभी भी देश के 15 से ज्यादा राज्य ऐसे हैं, जहाँ राज्य अल्पसंख्यक आयोग काम नहीं कर रहा है। इसी वजह से जम्मू-कश्मीर जैसे राज्य में अल्पसंख्यक समुदाय को लेकर भ्रम की स्थिति कायम है और जिस समुदाय को अल्पसंख्यक माना जाना चाहिए उसके उलट लोगों को लाभ मिल रहा है। दरअसल तमाम राज्यों में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग द्वारा अधिसूचित समुदायों को अल्पसंख्यक का दर्जा प्राप्त है, जबकि जनगणना के आंकड़े कुछ और बयां करते हैं। इस संबंध में एक रोचक तथ्य और है, जिसपर गौर किया जाना चाहिए।

सांकेतिक तस्वीर

जनगणना 2011 के आंकड़ों के मुताबिक़ देश में मुसलमानों की कुल जनसंख्या 17 करोड़ 22 लाख है, जो कि कुल आबादी का 14.2 फीसद है। पिछली यानि 2001 की जनगणना में यह आबादी कुल आबादी की 13.4 फीसद थी। अर्थात मुसलमानों की आबादी में आनुपातिक तौर पर .8 फीसद की बढ़ोत्तरी हुई है। वहीं देश का बहुसंख्यक समुदाय अर्थात हिन्दू समुदाय कुल जनसंख्या का 79.8 फीसद है, जो कि 2001 में 80.5 फीसद था। अर्थात, कुल जनसंख्या में हिन्दुओं की हिस्सेदारी कम हो रही है। इसके अतिरिक्त अगर अन्य अल्पसंख्यक समुदायों की बात करें, तो इसाई समुदाय और जैन समुदाय की स्थिति में कोई कमी नही आई है, जबकि सिक्ख समुदाय की हिस्सेदारी में .2 फीसद की मामूली कमी आई है। कमोबेश ऐसी ही स्थिति बौध समुदाय की भी है। अब अगर कुल जनसंख्या में इन समुदायों की वृद्धि दर अथवा कमी की दर का विश्लेषण करें, तो मुस्लिम समुदाय की वृद्धि दर कुल जनसंख्या की वृद्धि दर से 6.9 फीसद ज्यादा है। देश की जनसंख्या इन वर्षों में 17.7 फीसद की दर से बढ़ी है, जबकि मुसलमान समुदाय की वृद्धि दर 24.6 फीसद रही है। वहीं इन्हीं मानदंडों पर अगर हिन्दू समुदायों के वृद्धि दर की बात करें, तो कुल जनसंख्या के वृद्धि दर की तुलना में हिन्दुओं की जनसंख्या .9 फीसद की कमी के साथ 16.8 फीसद की वृद्धि दर से बढ़ी है।

इसके इतर भी कुछ अन्य आंकड़े वर्गीकृत हुए हैं; जैसे देश में लगभग 29 लाख लोग किसी भी धर्म को नहीं मानने वाले हैं, जो कि कुल जनसंख्या का बहुत छोटा हिस्सा है। उत्तरप्रदेश और असम जैसे राज्यों में मुस्लिम आबादी तुलनात्मक रूप से अधिक है। उत्तरप्रदेश के 21 जिले ऐसे हैं, जहाँ मुसलमानों की हिस्सेदारी 20 फीसद से अधिक है। उत्तर प्रदेश के ही 6 जिले ऐसे हैं, जहाँ मुसलमान समुदाय हिन्दू समुदाय के बराबर अथवा ज्यादा भी हैं। जनगणना 2011 के आंकड़ों के अनुसार मिजोरम में 2.75 फीसद, लक्षदीप में 2.77 फीसद, जम्मू-कश्मीर में 28.44 फीसद, नागालैंड में 8.75 फीसद, मेघालय में 11.53 फीसद, मणिपुर में 41.39 फीसद, अरुणाचल प्रदेश में 29.04 फीसद और पंजाब में 38.4 फीसद हिन्दू हैं।  ऐसे में बड़ा सवाल यह उठता है कि इन राज्यों में अल्पसंख्यक तय करने का पैमाना क्या है ? क्या यहाँ हिन्दुओं को अल्पसंख्यक समुदाय को मिलने वाला लाभ मिल रहा है ?

भारत में अल्पसंख्यक शब्द की अवधारणा पुरानी है। सन 1899 में तत्कालीन ब्रिटिश जनगणना आयुक्त द्वारा कहा गया था कि भारत में सिख, जैन, बौध, मुस्लिम को छोड़कर हिन्दू बहुसंख्यक हैं। यहीं से अल्पसंख्यकवाद और बहुसंख्यकवाद के विमर्श को बल मिलने लगा। ब्रिटिश नियामकों से एक कदम आगे बढ़कर भारत में जब राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग का गठन किया गया, तो माननीय सर्वोच्च नयायालय के मुख्य न्यायाधीश आर. एस लाहोटी ने अपने एक निर्णय में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग भंग करने का सुझाव तक दिया था; लेकिन उसपर कोई अमल नहीं हुआ। आज जरूरत है कि अल्पसंख्यक शब्द को लेकर संघीय ढाँचे में संघ के राज्यों के विविध भौगोलिक परिवेश के अनुकूल यह तय किया जाय कि कहाँ कौन ‘अल्पसंख्यक’ माना जा सकता है! जिस ढंग से अल्पसंख्यक शब्द को आज परिभाषित किया गया है, वो ‘हिन्दू समुदाय’ के लिए वाकई चिंताजनक है और हिन्दू सगठनों की चिंता बेजा नही है। आज अगर संघ प्रमुख जनसंख्या के इस असंतुलन पर अपनी चिंता व्यक्त कर रहे हैं, तो उसके विविध पक्षों को समझने की जरुरत है।

हालांकि इस संबंध में दायर याचिका के बाद मुख्य न्यायाधीश खेहर की अध्यक्षता वाली पीठ ने इस मामले को महत्वपूर्ण बताते हुए इसपर चार सप्ताह में रिपोर्ट दाखिल करने को कहा है। चूँकि यह स्थानीय लोगों के न्याय से जुड़ा मामला भी है, अत: इसपर शीघ्र समाधान निकालने की जरूरत भी है। अगर इस याचिका की मांग को मान लिया जाता है, तो जम्मू-कश्मीर में हिन्दुओं को भी अल्पसंख्यकों की मिलने वाली सभी सुविधाओं का लाभ आसानी से मिल सकेगा। हालांकि इस संबंध में पहले भी अनेक सुझाव आते रहे हैं, लेकिन सरकारों द्वारा उसपर कोई ठोस अमल नहीं किया गया है।

(लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च फैलो हैं एवं नेशनलिस्ट ऑनलाइन डॉट कॉम के संपादक हैं।)