अन्ना हजारे की विश्वसनीयता पर संदेह नहीं किया जा सकता लेकिन उन्हें मोदी सरकार के विरूद्ध अनशन करने से पहले 2011 के चर्चित अन्ना आंदोलन से पैदा हुई केजरीवाल की राजनीतिक पार्टी और सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन करना चाहिए। संभव है कि इससे उनके आंदोलन से उपजी पार्टी एक ईमानदार सरकार का प्रतिमान स्थापित कर देश की राजनीति को एक नई दिशा देने की कोशिश करे। दुर्भाग्यवश अन्ना हजारे को न तो केजरीवाल सरकार का भ्रष्टाचार दिखाई नहीं दे रहा है और न ही केजरीवाल की तानाशाही।
समाजसेवी अन्ना हजारे एक बार फिर अनशन कर रहे हैं। 30 जनवरी से वे अहमदनगर जिले के अपने पैतृक गांव रालेगण सिद्धि में अनशन पर बैठे हैं। उनकी मांग है कि केंद्र में लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्त की तत्काल नियुक्ति की जाए। भले ही अन्ना हजारे ने स्पष्ट कर दिया है कि अनशन का राजनीतिक उपयोग नहीं किया जाए, इसके बावजूद उनके अनशन को समर्थन देने के बहाने राजनीति के दांव-पेच खेले जा रहे हैं। कोई उन्हें भारतीय जनता पार्टी व आरएसएस का एजेंट बता रहा है तो कोई भ्रष्टाचार से लड़ने वाला योद्धा।
अन्ना हजारे की विश्वसनीयता पर संदेह नहीं किया जा सकता लेकिन उन्हें मोदी सरकार के विरूद्ध अनशन करने से पहले 2011 के चर्चित अन्ना आंदोलन से पैदा हुई केजरीवाल की राजनीतिक पार्टी और सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन करना चाहिए। संभव है कि इससे उनके आंदोलन से उपजी पार्टी एक ईमानदार सरकार का प्रतिमान स्थापित कर देश की राजनीति को एक नई दिशा देने की कोशिश करे। दुर्भाग्यवश अन्ना हजारे को न तो केजरीवाल सरकार का भ्रष्टाचार दिखाई नहीं दे रहा है और न ही केजरीवाल की तानाशाही।
गौरतलब है कि दिल्ली की लोकायुक्त रेखा खेत्रपाल ने 10 जनवरी को मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल सहित दिल्ली के सभी विधायकों को नोटिस देकर उनकी संपत्ति का ब्योरा मांगा था। नोटिस मिलने के बाद भाजपा के विधायकों सहित अकाली दल के विधायक मनजिंदर सिंह सिरसा ने अपनी संपत्ति सार्वजनिक रूप से घोषित कर दी।
आम आदमी पार्टी के निलंबित विधायक कपिल मिश्रा ने भी लोकायुक्त के सामने अपनी संपत्ति की सार्वजनिक घोषणा कर दी लेकिन आम आदमी पार्टी के विधायकों ने अपनी संपत्ति की घोषणा नहीं की। संपत्ति की सार्वजनिक घोषणा न करने वालों में राजनीति में ईमानदारी की स्वघोषित मूर्ति बनकर उभरे अरविंद केजरीवाल भी शामिल हैं।
मजबूत लोकपाल देने के वादे पर गठित और सत्ता हासिल करने वाली आम आदमी पार्टी सत्ता पाते ही लोकपाल को भूल गई। पिछले दस महीने से दिल्ली सरकार की लोकपाल संबंधी फाइल कहां है, किसी को नहीं पता। इतना ही नहीं शीला दीक्षित के कार्यकाल में दिल्ली में भ्रष्टाचार का जो खुला खेल खेला गया था, मुख्यमंत्री बनने के बाद केजरीवाल ने उसके प्रति भी आंखे बंद कर ली।
भ्रष्टाचार के विरूद्ध निर्णायक लड़ाई लड़ने का वादा करके सत्ता में आई पार्टी भ्रष्टाचार को ही परमधर्म बना लेगी ऐसा किसी ने नहीं सोचा था। यही कारण है कि आम आदमी पार्टी की लोकप्रियता तेजी से घट रही है। कांग्रेसी भ्रष्टाचार के प्रति आंखे मूंदने वाले अरविंद केजरीवाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ मोर्चा खोलकर राष्ट्रीय नेता बनने की जुगत में लग गए थे। लेकिन ‘ये पब्लिक है, सब जानती है’ को चरितार्थ करते हुए जब कई चुनावों में आम आदमी पार्टी को जनता ने करारी हार का स्वाद चखाया तब उन्होंने मोदी से भिड़ने का अपना रवैया कुछ हद तक बदल लिया है।
आम आदमी पार्टी का गठन इस प्रतिबद्धता के साथ हुआ था कि वह राजनीति में जाति, धर्म, क्षेत्र भाषा जैसी संकीर्णताओं से उपर उठकर इंसान को इंसान की तरह देखेगी। इसके बावजूद केजरीवाल ने जाति-धर्म की राजनीति करने लगे। उदाहरण के लिए पार्टी के संस्थापक सदस्य आशुतोष से कहा गया कि वे अपने नाम के आगे अपनी जाति का नाम लिखें और चांदनी चौक इलाके से लोक सभा का चुनाव लड़ें ताकि बनिया जाति का एकमुश्त वोट उन्हें मिले। जब आशुतोष ने ऐसा करने से मना कर दिया तब केजरीवाल ने पार्टी में ऐसी स्थिति पैदा कर दी कि आशुतोष को पार्टी छोड़ देना पड़ा। इसी तरह का व्यवहार केजरीवाल ने पार्टी के अन्य वरिष्ठ नेताओं के साथ किया।
समग्रत: अन्ना हजारे को मोदी सरकार के खिलाफ अनशन करने के बजाए मोदी सरकार द्वारा भ्रष्टाचार को जड़ से खत्म करने वाले कानूनों को और प्रभावी बनाने का उपाय सुझाना चाहिए। इससे अन्ना हजारे की विश्वसनीयता में तो वृद्धि होगी ही राजनीति में भी शुचिता के एक नए अध्याय का आगाज होगा।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। वरिष्ठ स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)