पशु बाजारों में हत्या के लिए मवेशियों की खरीद-फरोख्त पर प्रतिबन्ध लगाने वाली केंद्र की अधिसूचना का विरोध करने वाले कांग्रेस, वामदल और तथाकथित धर्मनिरपेक्ष वर्ग नफरत की राजनीति को इतना आगे ले आए हैं कि स्वस्थ वार्ता की गुंजाइश ही नहीं बची। गौवंश संरक्षण की दिशा में तो सभी को अग्रसर होना चाहिए। जो लोग गौ हत्या जैसी घृणित बात का समर्थन करते हैं, वे भूल जाते हैं कि गाय से प्राप्त होने वाले संसाधनों व उत्पादों का वे भी समान रूप से उपभोग करते हैं। बावजूद इसके वे जिस थाली में खा रहे हैं, उसी में छेद कर रहे हैं।
केंद्र सरकार ने हाल ही में पशु बाजारों में मवेशियों की खरीद-फरोख्त पर प्रतिबंध को लेकर एक अधिसूचना जारी की है। इसके तहत देश भर के पशु बाजारों में अब पशुओं को कत्ल करने के लिए खरीदे जाने पर रोक लागू होगी। यह एक ऐसा अधिनियम है, जिसके चलते पशुओं के कत्लगाह बनते जा रहे नगर, कस्बों, गांवों में बूचड़खाने की पनपती संस्कृति पर विराम लग सकता है। हैरत है कि इतने सटीक और अर्थपूर्ण अधिनियम को लेकर भी विपक्षी दलों द्वारा विरोध शुरू कर दिया गया। विरोध करने वाले कांग्रेसी, वामपंथी और कथित धर्मनिरपेक्ष लोग हैं, जिन्हें यह अभूतपूर्व पहल नागवार गुजर रही है। अधिनियम के फैसले के सामने आते ही देश के कई राज्यों के राजनीतिक दलों द्वारा इसका विरोध शुरू हो गया।
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी सरकार के फैसले का विरोध करते हुए इसे असंवैधानिक करार दिया है। पशुओं की खरीद-फरोख्त राज्यों का मामला है, इसमें केन्द्र सरकार का दखल देना गलत है। यह कुतर्क देते हुए ममता यह प्राथमिक बात भूल गईं कि कुछ मामलों में राज्य सरकारें केंद्र के अधीन ही होती हैं एवं केंद्र के निर्णय को मान्य करना उनके दायरे में आता है।
यदि कुछ देर के लिए ममता के इस कुतर्क को मान लिया जाए कि राज्यों के मामले में केंद्र का दखल देना गलत है तो फिर राज्यों में होने वाली प्राकृतिक आपदा अथवा कानून व्यवस्था के लिए राहत राशि, राहत बल भेजना केंद्र को बंद कर देना चाहिए। स्वयं ममता बेनर्जी को केंद्र सरकार से विकास के नाम पर राशि मांगना बंद कर देना चाहिए।
मोदी सरकार और योगी सरकार ने जबसे मुसलमानों के उन्नयन का बीड़ा उठाया है एवं तीन तलाक, हलाला जैसी कुप्रथाओं को खत्म करने की दिशा में प्रयास शुरू किया है, तबसे देश का मुस्लिम वर्ग विवेकशील एवं समझदार होता जा रहा है। अब मुस्लिम भली-भांति जानते हैं कि भावनात्मक तौर पर उन्हें बहकाकर कथित धर्मनिरपेक्ष दलों द्वारा वोटबैंक के रूप में खूब इस्तेमाल किया गया है, लिहाजा उक्त अधिनियम के बाद भी देश में समुदाय विशेष के किसी आम जन ने बवाल नहीं मचाया, लेकिन तथाकथित सेकुलर और वामदलों ने इसे भरपूर राजनीतिक रंग देने और माहौल खराब करने की कुत्सित कोशिश की।
सबसे पहले केरल की युवा कांग्रेस ने बौखलाहट और बेशर्मी की सारी हदें पार करते हुए व एक निम्न स्तर की प्रतिक्रिया देते हुए इस अधिसूचना के विरोध में सरेआम एक बछड़े को काटा। इतना ही नहीं, कन्नूर में युवा कांग्रेस के आठ कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के बाद जब मामले ने तूल पकड़ा तो कांग्रेस ने आनन-फानन में खुद को भला साबित करने के लिए युवा कांग्रेस के तीन नेताओं को निलंबित किया। कांग्रेस ने यह भी कहा कि उक्त नियम का विरोध करने के लिए वह वाम मोर्चे से गठबंधन को भी तैयार है।
सतहीपन और भ्रष्ट बुद्धि का सबसे स्याह अध्याय गुरुवार को केरल विधानसभा में देखने को मिला, जब यहां के विधायकों ने सदन के केंटीन में बीफ खाकर अपनी अराजकतावादी सोच पर मुहर लगा दी। हैरत की बात तो यह है कि सदन में अधिनियम को लेकर ही विशेष सत्र का आयोजन किया गया था। लेकिन सदन पहुंचने से पहले विधायकों को नाश्ते में बीफ परोसा गया। वैसे भी इस विधानसभा के केंटीन में बीफ बतौर भोजन बनता रहा है।
केंटीन के ही एक कर्मचारी का बयान था कि सदन में पशु वध पर चर्चा के लिए यह विशेष सत्र था, जिसके लिए हमने पहले से ही दस किलो बीफ मंगवाकर रख लिया था। कैंटीन में बीफ फ्राइ खाने सबसे पहले सीपीआइ एम के विधायक एस. राजेंद्रन पहुंचे। यह पाखंड की पराकाष्ठा थी कि जिस पशु वध पर केंद्र सरकार ने बकायदा अधिसूचना जारी कर रोक लगा दी है, उसी पर चर्चा के लिए विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर वाम विधायकों ने गाय का मांस खाया। यह अत्यंत कुत्सित मानसिकता का प्रमाण है।
सत्र शुरू होने पर बीफ भक्षक विधायकों ने बीफ के समर्थन में खूब कुतर्क दिए और आंकड़ों की बाजीगरी से यह साबित करने की कोशिश की कि पशु वध विरोध कानून स्वीकार नहीं है। 140 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा के एक मात्र विधायक ओ. राजगोपाल ने प्रस्ताव का विरोध किया। भाजपा विधायक ने कहा कि राजनीतिक कारणों से केरल विधानसभा का दुरुपयोग किया गया।
स्पष्ट है कि केंद्र की तरफ से पशु वध पर प्रतिबन्ध के अधिनियम के आते ही कांग्रेस से लेकर कम्युनिस्टों तक में बौखलाहट दिखाई देने लगी है। कन्नूर में युवा कांग्रेस का गोवध का कुकृत्य हो या केरल विधानसभा में वामपंथी विधायकों का बीफ भोजन, ये घटनाए इनकी बौखलाहट को ही दिखाती हैं। इस सम्बन्ध में ये लाख कुतर्क गढ़ सकते हैं, लेकिन इनका कोई कुतर्क इसे सही नहीं ठहरा सकता कि केवल स्वाद या आर्थिक लाभ के लिए एक निरीह पशु की हत्या कर दी जाए।
इन सब अप्रिय घटनाओं के बीच एक राहत भरी खबर सामने आई जब गुजरात सरकार ने गुजरात पशु संरक्षण (संशोधन) अधिनियम 2017 लागू कर दिया। इस कानून के तहत गोवध करने वालों के लिए उम्रकैद की सजा का प्रावधान किया गया है। गुजरात के गृह राज्यमंत्री प्रदीपसिंह जडेजा ने कहा कि सरकार गायों के संरक्षण के लिए प्रतिबद्ध है।
राज्य में गोवध करने वालों को उम्रकैद की सजा भुगतनी होगी। वध के लिए गाय ले जाने वाले वाहनों या गाय को बंदी बनाने वालों को भी यही सजा मिलेगी। उन्होंने बताया कि इससे पहले इस कानून का उल्लंघन करने वालों को तीन से सात साल की सजा सुनाई जाती थी और 50,000 रुपये जुर्माना किया जाता था। लेकिन अब कम से कम 10 साल कैद की सजा होगी और जुर्माना पांच लाख रुपये किया जाएगा।
गृह राज्यमंत्री ने कहा कि नए कानून के प्रावधानों के मुताबिक, बीफ या उससे बने उत्पादों की ढुलाई या भंडारण या प्रदर्शन करने पर भी सात से 10 कैद की सजा होगी। ऐसे मामलों में जुर्माना एक लाख रुपये से पांच लाख रुपये तक किया जाएगा। पहले कानून का उल्लंघन करने वालों को जमानत मिल जाती थी, लेकिन अब पुलिस ऐसे लोगों के खिलाफ गैर जमानती धारा में मुकदमा दर्ज करेगी।
गुजरात सरकार ने उक्त अधिनियम को लागू करने में जिस तत्परता एवं साहस का परिचय दिया, वह निश्चित ही प्रशंसा व स्वागत के योग्य है। कितना अच्छा हो यदि यह कानून अखिल भारतीय रूप से देश के प्रत्येक राज्य में समान रूप से न केवल लागू हो बल्कि क्रियान्वित भी हो। यह केवल भाजपा सरकार का आदेश है, इसलिए विरोध मात्र के लिए किसी भी कानून का विरोध करना उथली और गंदी राजनीति की मानसिकता है।
अफसोस है कि कांग्रेस, वामदल और तथाकथित धर्मनिरपेक्ष वर्ग नफरत की राजनीति को इतना आगे ले आए हैं कि स्वस्थ वार्ता की गुंजाइश ही नहीं बची। गौवंश संरक्षण की दिशा में तो सभी को अग्रसर होना चाहिए। जो लोग गौ हत्या जैसी घृणित बात का समर्थन करते हैं, वे भूल जाते हैं कि गाय से प्राप्त होने वाले संसाधनों व उत्पादों का वे भी समान रूप से उपभोग करते हैं। बावजूद इसके वे जिस थाली में खा रहे हैं, उसी में छेद कर रहे हैं।
इस विरोध की आड़ में कांग्रेस एवं वामदलों का मानसिक दिवालियापन भी उजागर हो गया है। जिस देश में भोजन बनने के बाद पहली रोटी सदा से गाय को माता स्वरूप मानकर खिलाई जाती हो, उसी देश में गाय का मांस काटकर जलसा मनाने वाले निश्चित ही मनुष्यता से नीचे पतित की श्रेणी में आते हैं। चूंकि कानून तो बन ही चुका है, देर सबेर इसे मान्य करना ही होगा। देखना यह है कि गुजरात की तरह और कितने राज्य इस सार्थक पहल को अंगीकार कर पाते हैं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)