अब आप इन आंकड़ों पर भी गौर फरमा लीजिए। 1952 में पाकिस्तान में हिन्दुओं की आबादी लगभग 22 प्रतिशत थी जो 2019 में घटकर मात्र 7 से 8 प्रतिशत रह गई है। बांग्लादेश की बात करें तो 1974 में मुसलमानों की संख्या 85 प्रतिशत से ज्यादा थी तो वहीं हिन्दुओं की संख्या 13.5 प्रतिशत थी। 2011 में मुस्लिमों की संख्या 90 फीसदी से ज्यादा हो गई और हिन्दू मात्र 8 फीसदी रह गए।यह सारे तथ्य बताते हैं कि नागरिकता संशोधन बिल पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में उपेक्षित अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के लिए कितना आवश्यक है।
तीन तलाक पर क़ानून बनाकर, कश्मीर से धारा 370 हटाकर, राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अब नागरिकता संशोधन बिल को लोकसभा से पारित कराकर मोदी सरकार ने अपनी नीतियां बिलकुल साफ़ कर दी हैं। इस सरकार की खासियत ही कही जाएगी कि एक के बाद एक महत्वपूर्ण और युगांतरकारी परिवर्तन की नींव रखने में कामयाब हो रही है। फिलहाल सर्वाधिक चर्चा नागरिकता संशोधन बिल को लेकर हो रही है। गृहमंत्री अमित शाह ने कल यह विधेयक लोकसभा के में पेश किया जहां यह 80 के मुकाबले 311 मतों से पारित हो गया।
जिन्हें भी ऐसा लग रहा हो कि नागरिकता संशोधन बिल कोई नया मुद्दा है, उन्हें अपनी जानकारी दुरुस्त कर लेनी चाहिए। यहां यह समझना आवश्यक होगा कि इस बिल को लेकर भाजपा अथवा जनसंघ का दृष्टिकोण क्या रहा है। जी हां, यह मुद्दा भाजपा के बनने से बहुत पहले जनसंघ के समय उठाया जाता रहा है।
जनसंघ के आधिकारिक दस्तावेज ‘रक्षा एवं वैदेशिक नीति’ में कई जगह इससे सबंधित विषय का स्पष्ट रूप से उल्लेख मिलता है। दिसंबर 1952 के 26वें प्रस्ताव में जिक्र किया गया है कि पूर्वी बंगाल के हिन्दुओं की दिनोंदिन बिगड़ती दशा के कारण भारत की जनता को गंभीर चिंता हो रही है।
पाकिस्तान के संविधान का उल्लेख करते हुए बताया गया है कि कोई भी गैर-मुस्लिम पाकिस्तान का प्रधान नहीं हो सकता है। बौद्ध, हरिजन और इतर हिन्दू इस प्रकार तीन वर्गों में हिन्दुओं को बांटकर दुर्बल ही किया गया है। वहां मुस्लिम धर्माधिकारियों के लिए अलग बोर्ड बनाए जाएंगे, जो देखेंगे कि कोई कानून कुरआन और शरीअत के खिलाफ तो नहीं है। लेकिन अल्पसंख्यकों (हिन्दुओं) के धर्म तथा संस्कृति की रक्षा के लिए कोई प्रबंध नहीं किया गया। उनकी सामाजिक व्यवस्था, उनकी आर्थिक और राजनीतिक स्थिति कुछ भी सुरक्षित नहीं रखी गई।
देश के विभाजन का मौलिक आधार था कि दोनों विभाजित भागों के शासक अपने अल्पसंख्यक वर्गों को बराबरी का अधिकार देंगे और संतुष्ट रखेंगे। पाकिस्तान ने इस आधारभूत मान्यता को जानबूझकर और लगातार ठुकराया है। अतः भारत का यह अधिकार ही नहीं अपितु कर्तव्य भी बनता है कि वह पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा करे।
25 मई, 1964 को राजधानी दिल्ली में केन्द्रीय कार्यसमिति ने यह अनुभव किया कि भारत की सरकार को पाकिस्तान की सरकार पर यह दबाव डालना चाहिए कि भारत आने वाले अल्पसंख्यकों (हिन्दुओं) के साथ मार्ग में होने वाली अमानुषिक अनाचार की घटनाएं बंद हो सकें।
ऐसी कोई व्यवस्था की जाए कि भारत के अधिकारी पाकिस्तान की सीमा में जाएं और भारत आने को इच्छुक अल्पसंख्यकों को सम्मानपूर्वक सुरक्षित ले आएं। विस्थापितों के पुनर्वास को लेकर कांग्रेस की उदासीनता को दर्शाते हुए कहा गया कि नए विस्थापितों के लिए बंगाल में जगह नहीं है लेकिन ऐसे बहुत से क्षेत्र हैं जैसे सुंदरवन, जहां काफी संख्या में विस्थापितों को बसाया जा सकता है।
नेहरू-लियाकत के समझौते में भी एक-दूसरे के देशों के अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा की बात कही गई थी लेकिन संसद में समाजवाद के शिखर पुरुष राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि 1947 से 1966 तक लगभग 70 लाख हिन्दू पाकिस्तान से विस्थापित होकर भारत आए। आज उन्ही लोहिया के कथित अनुयायी अखिलेश यादव इस बिल का विरोध कर रहे हैं।
विभाजन के दौरान गांधी, नेहरू और पटेल इन तीनों नेताओं ने कहा था कि पाकिस्तान के हिन्दुओं की सुरक्षा का उत्तरदायित्व हम लेते हैं। उनके हितों पर निरंतर दृष्टि रखना और उनकी रक्षा करना भारत के जन और शासन का कर्तव्य होगा। आज जब भारत की जड़ों से जुड़ी हुई जनता के हितों की बात हो रही है, उन्हें अधिकार देने की बात हो रही है तो कांग्रेस विरोध में खड़ी है।
अब आप इन आंकड़ों पर भी गौर फरमा लीजिए। 1952 में पाकिस्तान में हिन्दुओं की आबादी लगभग 22 प्रतिशत थी जो 2019 में घटकर मात्र 7 से 8 प्रतिशत रह गई है। बांग्लादेश की बात करें तो 1974 में मुसलमानों की संख्या 85 प्रतिशत से ज्यादा थी तो वहीं हिन्दुओं की संख्या 13.5 प्रतिशत थी। 2011 में मुस्लिमों की संख्या 90 फीसदी से ज्यादा हो गई और हिन्दू मात्र 8 फीसदी रह गए।
जहां एक ओर यह सारे तथ्य बताते हैं कि नागरिकता संशोधन बिल पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में उपेक्षित अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के लिए कितना आवश्यक है, वहीँ दूसरी ओर इस बिल का विरोध कर तमाम राजनीतिक दल अपने ही नेताओं के पदचिन्हों से किनारा कर रहे हैं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)