अब गौरी लंकेश के कत्ल से साफ है कि कर्नाटक में सबकुछ ठीक नहीं है। लेकिन बावजूद इसके कर्नाटक की कांग्रेस सरकार को कोई वामी और सेक्युलर कठघरे में खड़ा नहीं कर रहा है। गौरी की हत्या के बाद देश के सोशल मीडिया में कुछ उसी तरह का माहौल बनाया जा रहा है, जैसा तब बना था, जब राजधानी से सटे नोएडा के बिसहाड़ा गांव में एक शख्स को अपने घर में गौ-मांस रखने के संदेह में उग्र भीड़ ने मार डाला था। कर्नाटक सरकार से जवाब मांगने की बजाय सेक्युलर और कॉमरेड केंद्र सरकार पर सवाल उठाने में लग गए हैं।
कर्नाटक जैसा देश का एक शानदार और प्रगतिशील राज्य जिस तेजी से गर्त में मिल रहा है, उसे सारे देश को गंभीरता से लेना होगा। बैंगलुरू में वरिष्ठ पत्रकार गौरी लंकेश की उनके घर में घुसकर हत्या से सारा देश का मीडिया जगत सन्न है। वो जुझारू पत्रकार थीं। गौरी के कातिलों को पकड़ा जाए और उन्हें कड़ी से कड़ी सजा मिले।
दरअसल बीते कुछ समय के दौरान कर्नाटक की नकारा कांग्रेस सरकार की मिली-भगत से राज्य में जो कुछ हो रहा है, उस पर नजर डालने की जरूरत है। मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के नेतृत्व वाली कर्नाटक सरकार खुद देश विरोधी गतिविधियों में लिप्त है। मुख्यमंत्री कुछ समय से राज्य के लिए पृथक झंडे की मांग कर रहे हैं। यानी उन्हें तिरंगे से इतर भी कोई झंडा चाहिए।
यही नहीं, कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया कह रहे हैं कि क्या देश के संविधान में ऐसा कोई नियम है जो राज्य को अपना अलग झंडा रखने से रोकता हो? क्या उन्हें इस संबंध में जानकारी नहीं है कि भारत का दूसरा झंडा नहीं हो सकता? कल तो वो मांग करने लगेंगे कि हमें अपना राज्यगान भी दो। और जरा देखिए कि दिल्ली में बैठे कांग्रेसी नेता सारे घटनाक्रम से बेपरवाह है। क्यों कांग्रेस नेतृत्व अपने कर्नाटक के नेताओं को नहीं कसता? क्या माना जाए कि केन्द्रीय नेतृत्व की मूक सहमति मिली हुई है कर्नाटक सरकार को?
हिन्दी का बेजा विरोध
गौरी लंकेश की हत्या और पृथक झंडे से हटकर बात करें तो कर्नाटक सरकार हिन्दी का भी बेशर्मी से विरोध कर रही है। कुछ समय पहले बैंगलुरु मेट्रो रेल के साइन-बोर्ड में हिन्दी इस्तेमाल होने का कन्नड़ समर्थक कड़ा विरोध कर रहे थे। ये पहले कभी नहीं हुआ। ये सरकार से तीन भाषाओं के बदले दो भाषाओं की नीति अपनाने का आग्रह भी कर रहे हैं। हिन्दी प्रेम, मैत्री और सौहार्द की भाषा है। सारे देश को जोड़ती है। अब अचानक से उसका कर्नाटक में क्यों विरोध हो रहा है, ये समझ से परे।
कर्नाटक में दशकों से हिन्दी प्रचार-प्रसार में कन्नड़ भाषी लगे हैं। हिन्दी विरोधियों का मुख्यमंत्री साथ दे रहे हैं। उन्हें पराई अंग्रेजी अपनी लगती है, पर उन्हें अपनी हिन्दी से तकलीफ है। पिछले दिनों बेंगलुरु मेट्रो के दो स्टेशनों पर हिंदी में लिखे गए नामों को टेप से ढक देने का मामला सामने आया था। यह घटना चिकपेटे और मैजेस्टिक स्टेशन की थी। यानी साफ है कि कर्नाटक को आग के आगे धकेला जा रहा है।
बचाओ कर्नाटक को
अब गौरी लंकेश के कत्ल से साफ है कि कर्नाटक को बचाने की जरूरत है। लेकिन हो यह रहा है कि वहां की कर्नाटक सरकार को कोई कठघरे में खड़ा नहीं कर रहा है। गौरी की हत्या के बाद देश के सोशल मीडिया में कुछ उसी तरह का माहौल बनाया जा रहा है, जैसा तब बना था जब राजधानी से सटे नोएडा के बिसहाड़ा गांव में एक शख्स को अपने घर में गौ-मांस रखने के आरोप में उग्र भीड़ ने मार डाला था।
उस घटना के बाद तमाम तथाकथित धर्मनिरपेक्ष नेता मृतक मोहम्मद अखलाक के घर पहुंचने लगे थे, ठीक उसी तरह जैसे बीच जंगल में मधुमक्खी का बड़ा छत्ता तूफ़ान में गिर जाये तो भालू-बन्दर उस पर टूट पड़ते हैं। वे अखलाक के घर में जाकर संवेदना कम और सियासत ज्यादा करते नजर आ रहे थे। तब उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार थी। इसके बावजूद सेक्युलरवादी केन्द्र की मोदी सरकार को दोषी ठहरा रहे थे।अखलाक के घर कांग्रेस के वाइस प्रेसिडेंट राहुल गांधी से लेकर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और असदुद्दीन ओवैसी से लेकर माकपा की वृंदा करात तक ने हाजिरी दी थी।
यानी अखलाक की जघन्य हत्या के बाद उसके घर नेताओं का तांता लगा ही रहा। केन्द्रीय पर्यटन और संस्कृति राज्यमंत्री महेश शर्मा ने खुद अखलाक के घर जाकर कहा, “यह हमारी संस्कृति पर धब्बा है और सभ्य समाज में इस तरह की घटनाओं का कोई स्थान नहीं है। अगर कोई कहता है कि यह पूर्व नियोजित था तो मैं इससे सहमत नहीं हूं।” इसके बावजूद विपक्ष के नेताओं को तो मानो सरकार को घेरने का मौका मिल गया हो। कानून-व्यवस्था राज्य का दायित्व है। लेकिन,धर्मनिरपेक्ष नेताओं ने सारा दोष केन्द्र सरकार पर डाल दिया।
गौरी लंकेश की हत्या के बाद अब फिर देश में लोकतंत्र से लेकर प्रेस की आजादी खतरे में आ चुकी है। सेकुलर खेमे का कोई भी नुमाइंदा कर्नाटक सरकार को वहां के बिगड़ते हालातों के लिए दोषी नहीं कह रहा। बड़ा सवाल ये है कि इस तरह की दोहरी नीति क्यों अपनाई जाती है? मौत पर सियासत करने वाले बेपर्दा क्यों नहीं होते? अभी से लग रहा है कि गौरी लंकेश की मौत पर कर्नाटक सरकार से हत्यारों को पकड़ने की मांग कम और सियासत अधिक होगी।
(लेखक यूएई दूतावास में सूचनाधिकारी रहे हैं। वरिष्ठ स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)