कांग्रेस के बरक्स अगर हम भाजपा को रखते हुए तुलनात्मक अध्ययन करें तो एक तरफ जहाँ कांग्रेस हर चुनाव में हार का सामना करने के साथ–साथ संगठन के स्तर पर बिखरती जा रही है, वहीं भाजपा हर राज्य में अपने जनाधार को मजबूत करने के साथ–साथ संगठन का ढांचा भी मज़बूत करने में लगी हुई है। उसीका परिणाम है कि आज भाजपा तथा एनडीए देश के अट्ठारह राज्यों में सत्ता पर काबिज़ हैं, जबकि कांग्रेस लगातार सिमटती-बिखरती जा रही है।
इतिहास के पन्नों को पलटें और इसके सहारे भारतीय राजनीति को समझने को प्रयास करें तो हैरानी इस बात पर होती है कि जो कांग्रेस पंचायत से पार्लियामेंट तक अपनी दमदार उपस्थिति रखती थी, आज वही कांग्रेस भारतीय राजनीति में अप्रासंगिक हो गई है। ऐसा इसलिए कहना पड़ रहा है, क्योंकि आज बिहार से लगाये कई राज्यों की सियासत गर्म है और इन सबमें में कांग्रेस कहीं गुम-सी नज़र आ रही है। बिहार में महागठबंधन ध्वस्त हो गया और नीतीश ने सबको चौकाते हुए बीजेपी के साथ मिलकर नई सरकार का गठन कर लिया।
इस प्रकरण पर कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी का यह कहना कि उन्हें पहले से यह जानकारी हो गई थी कि नीतीश बीजेपी के साथ जाने वाले हैं, न केवल हास्यास्पद है बल्कि यह बयान राहुल गाँधी की राजनीतिक समझ पर भी प्रश्नचिन्ह खड़े करता है। यह बात समझ से परे है कि जब राहुल को इस बात की जानकारी थी कि नीतीश पाला बदलने वालें हैं, फिर उन्होंने गठबंधन को बचाए रखने में दिलचस्पी क्यों नहीं दिखाई ? बिहार में महागठबंधन का हिस्सा कांग्रेस भी थी, ऐसे में कांग्रेस ने राजद और नीतीश के बीच बढ़ती कड़वाहट को समाप्त करने का प्रयास क्यों नही किया ?
वास्तव में, कांग्रेस की मुश्किल यही है कि वह बगैर किसी रणनीति के राजनीति करना चाहती है, जिसके कारण वह चारो तरफ से चुनौतियों से घिरी हुई है। कांग्रेस के लिए गुजरात से भी बुरी खबर आ रही है। गुजरात में केन्द्रीय नेतृत्व से असंतोष जाहिर करते हुए उसके छह विधायकों ने विधानसभा तथा कांग्रेस की सदस्यता से इस्तीफ़ा दे दिया है। खबर यह भी है कि इस्तीफे का यह सिलसिला थमने वाला नहीं है, पार्टी के कई और विधायक भी कांग्रेस का दामन छोड़ने का मन बना चुके हैं।
लगातार हो रहे इस्तीफे से बौखलाई तथा तिलमिलाई कांग्रेस ने इस आपसी फूट का ठीकरा भाजपा के सिर फोड़ा है और आरोप लगाया है कि बीजेपी धनबल तथा बाहुबल का इस्तेमाल कर उनके विधायकों को तोड़ रही है। इसके साथ-साथ कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कांग्रेसी विधायकों को दल बदल कानून का हवाला देते हुए चेतावनी भी दी है कि उनके ऊपर संवैधानिक कार्यवाही भी हो सकती है। ऐसे माहौल को देखते हुए भयभीत कांग्रेस ने अपने चालीस विधायकों को राज्यसभा चुनाव से पहले तक के लिए बैंगलोर भेज दिया है।
बहरहाल, कांग्रेस के आरोपों पर गौर करें तो कोई भी तथ्य अभीतक निकलकर सामने नहीं आया है, जिससे इस बात की पुष्टि हो सके कि यह इस्तीफा बीजेपी के इशारे पर हो रहा है। कांग्रेस की यह दलील बेहद कमजोर नज़र आ रही है क्योंकि यह केवल गुजरात की बात नहीं है बल्कि देश के हर हिस्से में आज कांग्रेस की हालत बेहद खराब है, जिसका सबसे बड़ा कारण पार्टी आलाकमान द्वारा कार्यकर्ताओं की उपेक्षा है। जो विधायक अथवा नेता पार्टी से त्यागपत्र दे रहें है, उन सभी नेताओं ने पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के प्रति गहरा असंतोष व्यक्त किया है। इससे पहले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता शंकर सिंह वाघेला ने भी पार्टी से त्यागपत्र दे दिया था।
गौरतलब है कि गुजरात में आठ अगस्त को तीन राज्यसभा सीटों के लिए चुनाव होने है। भाजपा की तरफ से राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी राज्यसभा चुनाव में प्रमुख चेहरा हैं। संख्या के आधार पर इनका राज्यसभा जाना लगभग तय माना जा रहा है। एक सीट को लेकर जद्दोजहद जारी है जिसके लिए भाजपा से बलवंत सिंह राजपूत तो कांग्रेस से सोनिया गाँधी के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल उम्मीदवार हैं।
गुजरात कांग्रेस में जिस तरह से कांग्रेस विधायकों में पार्टी नेतृत्व को लेकर नाराजगी उभर कर सामने आई है, वह न केवल राज्यसभा के लिए अहमद पटेल को मुश्किल में डाल रही है बल्कि आगामी विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस के लिए एक बड़े खतरे की घंटी है। कांग्रेस की खिसकती जमीन और नेतृत्व के उदासीन रवैये का ही परिणाम है कि आज भारतीय राजनीति में कांग्रेस अप्रांसगिक होकर रह गई है। अगर कांग्रेस का राजनीतिक वजूद आज संकट में है, तो उसका सबसे बड़ा कारण कांग्रेस नेतृत्व द्वारा कार्यकर्ताओं से दूरी बनाना है। कांग्रेस आलाकमान को लेकर जो असंतोष नेताओं ने जाहिर किया है, यदि समय रहते कांग्रेस नेतृत्व ने इसपर ध्यान नहीं दिया तो स्थिति और कठिन होने वाली है।
कांग्रेस इस वक्त विश्वसनीयता के संकट से गुज़र रही है, लेकिन इसपर ईमानदारी व गंभीरता से विचार करने की बजाय वो आरोप–प्रत्यारोप करने में अपना समय जाया कर रही है। जनता से बीच से कांग्रेस ने जो भरोसा गँवाया है, उसको हासिल करने के विपरीत अब अपने नेताओं, कार्यकर्ताओं का उससे भरोसा उठता नज़र आ रहा है अगर स्थिति में सुधार की ईमानदार पहल कांग्रेस आलाकमान द्वारा नहीं की गई तो वो दिन दूर नहीं जब मंझधार में फंसी यह नाव डूब जाएगी। वर्तमान की राजनीति में अगर खुद को प्रासंगिक रखना है तो किसी भी राजनीतिक दल को रचनात्मक होकर कार्यकर्ताओं से संवाद कायम करना पड़ेगा, किन्तु आज कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व में इन सबके प्रति तनिक भी गंभीरता नज़र नहीं आ रही।
कांग्रेस के बरक्स अगर हम भाजपा को रखते हुए तुलनात्मक अध्ययन करें तो एक तरफ जहाँ कांग्रेस हर चुनाव में हार का सामना करने के साथ–साथ संगठन के स्तर पर बिखरती जा रही है, वहीं भाजपा हर राज्य में अपने जनाधार को मजबूत करने के साथ–साथ संगठन का ढांचा भी मज़बूत करने में लगी हुई है। उसीका परिणाम है कि आज भाजपा तथा एनडीए देश के अट्ठारह राज्यों में सत्ता पर काबिज़ हैं।
अब देश के आधे से अधिक भू-भाग में सत्ता पर काबिज़ होने के बावजूद संगठन को मजबूत करने के लिए भाजपाध्यक्ष अमित शाह हर संभव कोशिश कर रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ थकी–हारी कांग्रेस लगातार मिल रहे पराजय के बाद भी परिश्रम और कुशल रणनीति के तहत जनता के बीच जाने और कार्यकर्ताओं में ऊर्जा भरने की कोशिश करने की बजाय राजनीतिक आरोप–प्रत्यारोप के जरिये प्रसांगिक बने रहने की बेजा कोशिशों में लगी हुई है।
बिहार में इतना बड़ा राजनीतिक उलटफेर हुआ, लेकिन महागठबंधन में शामिल होने के बाद भी कांग्रेस इतने बड़े राजनीतिक भूचाल में कहीं नज़र नहीं आई। इन सब राजनीतिक घटनाक्रमों को देखने के बाद यह प्रतीत होने लगा है कि कांग्रेस एक डूबती जहाज के समान हो गई है जिसकी सवारी से हर कोई बचना चाहता है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)