पिछले पांच सालों से कर्नाटक में कांग्रेस के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया सरकार चला रहे हैं, लेकिन आज स्थिति यह है कि सरकार बनाने के लिए कांग्रेस को खुलकर लिंगायत वोट बैंक का सहारा लेना पड़ा है, हिन्दू समाज को विभाजित करने की राजनीति करनी पड़ रही है। कांग्रेस खुलकर लिंगायत समर्थकों को हिन्दू धर्म से अलग करने के लिए हर संभव कोशिश कर रही है। ऐसे में, ये कहें तो गलत नहीं होगा कि कांग्रेस के पास प्रदेश में विकास के नाम पर बात करने के लिए कुछ है ही नहीं।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हर महीने “मन की बात” के ज़रिये देश के लोगों से संवाद स्थापित करते हैं, इसमें वे देश-समाज से जुड़े विकासपरक विषयों पर बात करते हैं। अतः हर महीने देश की जनता में जिज्ञासा रहती है कि वे अबकी इस कार्यक्रम के जरिये किन योजनाओं और नीतियों पर बात करने वाले हैं। लेकिन, विपक्ष और खासकर कांग्रेस पार्टी को शायद हमेशा यह चिंता रहती है कि कैसे हर मुद्दे पर राजनीति की जाए।
मौका था कर्नाटक में चुनाव घोषणापत्र जारी करने का, लेकिन यहाँ भी कांग्रेस ओछी सियासत करने से बच नहीं सकी। अच्छा होता कि कांग्रेस चुनावी मुद्दों के बारे में गंभीरता से बात करती और इस घोषणापत्र से पहले, अपने पिछले वादों पर भी चिंतन-मनन कर उनकी तस्वीर लोगों के सामने रखती। खैर, कर्णाटक में भी कांग्रेस को अपने वादों को बेचने के लिए उन संकेतों और राजनीतिक बिम्बों का सहारा लेना पड़ा, जिसको लेकर कांग्रेस का रवैया हमेशा आलोचनात्मक ही रहा है। शायद कांग्रेस के अन्दर आत्मविश्वास की कमी बहुत अधिक हो रही है, तभी कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी को अपने घोषणापत्र को लोगों तक पहुँचाने के लिए ‘मन की बात’ का बार-बार ज़िक्र करना पड़ा। उन्होंने कहा कि उनका घोषणापत्र जनता के ‘मन की बात’ है।
मतदाताओं की समझ को आप कम करके कभी भी नहीं आंक नहीं सकते और कभी आंकना भी नहीं चाहिए। कांग्रेस ने कर्नाटक में हर साल 20 लाख नौकरी और पांच सालों में 1 करोड़ नौकरी देने का वादा किया है। कांग्रेस को यह देखना चाहिए कि क्या इससे पहले कांग्रेस ने अपने चुनावी वादे कभी पूरे किये हैं ?
सत्ता में आने के लिए झूठे वादे करने एक बात है और उन वादों को पूरा करने के लिए इच्छाशक्ति का होना दूसरी बात है। इससे पहले पंजाब में जब कांग्रेस की सरकार बनी, उससे पहले यहाँ भी कांग्रेस ने हर हाथ को काम देने और हर युवा को स्मार्ट फ़ोन देने का वादा किया था, जो साल भर गुजर जाने के बाद भी पूरा नहीं हो पाया।
पिछले पांच सालों से कर्नाटक में कांग्रेस के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया सरकार चला रहे हैं, लेकिन आज स्थिति यह है कि सरकार बनाने के लिए कांग्रेस को खुलकर लिंगायत वोट बैंक का सहारा लेना पड़ा है, हिन्दू समाज को विभाजित करने की राजनीति करनी पड़ रही है। कांग्रेस खुलकर लिंगायत समर्थकों को हिन्दू धर्म से अलग करने के लिए हर संभव कोशिश कर रही है। ऐसे में, ये कहें तो गलत नहीं होगा कि कांग्रेस के पास प्रदेश में विकास के नाम पर बात करने के लिए कुछ है ही नहीं।
दूसरी तरफ, पिछले दिनों प्रधानमंत्री मोदी ने साफ़ साफ़ कहा कि भाजपा देश में सिर्फ विकासपरक राजनीति ही करेगी, कर्णाटक चुनाव में भी बीजेपी विकास के मुद्दे को लेकर ही जनता के सामने जा रही है। पीएम मोदी ने यहाँ तक कहा कि विपक्ष विकास की राजनीति से दूर भाग रहा है, और भावनात्मक मुद्दों को मुख्यधारा की राजनीती में लाने की कोशिश कर रहा है।
देखा जाए तो पिछले एक साल से सिद्धारमैया कन्नड़ भाषा को चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश में लगे हैं, जबकि सच्चाई यह है कि बंगलुरु जैसे महानगर को दुनिया के आईटी मानचित्र पर लाने में उत्तर भारतीयों का भी बड़ा हाथ है। इसके अलावा राज्य के लिए अलग झण्डे की जब-तब उठने वाली मांग भी उनकी राजनीति का ही हिस्सा है। सिद्धारमैया यह भी बताने की कोशिश में लगे हैं कि चुनावी सर्वे में सत्ता विरोधी लहर कम हुई है, भला कौन सी ऐसा सत्ताधारी पार्टी होगी, जो चुनाव पूर्व यह बात मान ले कि उसके खिलाफ जनता में लहर है ?
राहुल गांधी हर बार की तरह कर्नाटक में भी मुद्दा विहीन होकर ही चुनाव लड़ रहे हैं और जाति-धर्म तथा मोदी विरोध की राजनीति से अपना नंबर बनाने की कोशिश कर रहे हैं। विकास के मुद्दे पर बात करने की हिम्मत इनके पास भी नहीं है। दरअसल कांग्रेस पीएम मोदी के मई में होने वाले कर्नाटक दौरे से पहले ही घबराई हुई है और विकास के मुद्दे पर उनको घेरने में असमर्थ रहने के कारण बेसिर-पैर की बातें करने में लगी है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)