वाम विचारधारा के तथाकथित मानवाधिकारवादी आम नागरिकों से लेकर सुरक्षा बलों के मानवाधिकारों के हनन पर तो खामोश हो जाते हैं; पर अपराधियों, नक्सलियों, पत्थरबाजों के मानवाधिकारों को लेकर बहुत जोर-शोर से आवाज बुलंद करते हैं। अरुंधति राय से लेकर आनंद पटवर्धन समेत दूसरे भांति-भांति के स्वघोषित बुद्धिजीवियों और स्वघोषित मानवाधिकार आंदोलनकारियों के लिए अफजल गुरु से लेकर अजमल कसाब के मानवाधिकार हो सकते हैं, पर नक्सलियों की गोलियों से छलनी सुरक्षाबलों के मानवाधिकारों का शायद इनके लिए कोई मतलब नहीं है। इस हमले पर नक्सलियों के खिलाफ इनके मुंह से एक शब्द भी नहीं सुना जा सकता।
छतीसगढ़ की सुकमा घाटी में केन्द्रीय सुरक्षा बल के दो दर्जन से अधिक जवानों को नक्सलियों ने सोमवार को मार डाला। जाहिर है, सुरक्षा बलों के इतनी संख्या में मारे जाने से सारा देश सन्न है। चौतरफा मांग हो रही है कि माओवादियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई हो और सरकार भी इसपर काफी गंभीर नज़र आ रही है। पर, इस मौके पर अपने को मानवाधिकारवादी कहने वाले विचारधारा विशेष के लोगों की खामोशी अत्यंत डराने वाली है।
मानवाधिकारवादियों की तरफ से कोई प्रतिक्रिया न आना बहुत सारे सवाल छोड़ जाता है। हमारे ये वाम विचारधारा के तथाकथित मानवाधिकारवादी आम नागरिकों से लेकर सुरक्षा बलों के मानवाधिकारों के हनन पर तो खामोश हो जाते हैं, पर अपराधियों के मानवाधिकारों को लेकर बहुत जोर-शोर से आवाज बुलंद करते हैं। अरुंधति राय से लेकर आनंद पटवर्धन समेत दूसरे भांति-भांति के स्वघोषित बुद्धिजीवियों और स्वघोषित मानवाधिकार आंदोलनकारियों के लिए अफजल गुरु से लेकर अजमल कसाब के मानवाधिकार हो सकते हैं, पर नक्सलियों की गोलियों से छलनी सुरक्षाबलों के मानवाधिकारों का शायद इनके लिए कोई मतलब नहीं है।
निश्चित रूप से भारत जैसे देश में हरेक नागरिक के मानवाधिकारों की रक्षा करना सरकार का दायित्व है। कहने की जरूरत नहीं है कि व्यक्ति चाहे अपराधी ही क्यों न हो, जीवित रहने का अधिकार उसे भी है, यही मानवाधिकारों का मूल सिद्धांत है। जो अधिकार अपराधियों के प्रति भी संवेदना दिखाने के हिमायती हों, वह आम नागरिकों के सम्मान और जीवन के तो रक्षक होंगे ही, पर कभी-कभी लगता है कि इस देश के ये कुछ पेशेवर मानवाधिकारों के रक्षक सिर्फ अपराधियों के प्रति ही संवेदनशील हैं, नागरिकों के प्रति नहीं।
आतंकवादियों के हमलों में कई बार घायल हो चुके मनिंदर सिंह बिट्टा सही कहते हैं कि क्या सिर्फ मारने वाले का ही मानवाधिकार है? मरने वाले का कोई अधिकार नहीं है? याद नहीं आता कि कश्मीर से लेकर छतीसगढ़ में मारे गए सुरक्षा बलों के जवानों पर मानव अधिकारों के किसी पैरोकार ने संवेदना के दो शब्दभी बोले। देश ने पंजाब में पृथकतावादी आंदोलन के समय भी मानवाधिकारवादियों के दोहरे चेहरे को साफतौर पर देखा था। तब भी ये उग्रवादियों के मारे जाने पर तो खूब स्यापा करते थे, पर आम नागरिकों या पुलिसकर्मियों के मारे जाने पर शांत रहते थे।
छत्तीसगढ़ और बाकी सभी माओवादी प्रभावित राज्य सरकारों का नक्सल मोर्चे पर रुख लगभग साफ़ है। ये लड़ रही हैं नक्सलियों से। पर कुछ नेता ही गड़बड़ करने से पीछे नहीं रहते। आपको याद होगा कि पिछली यूपीए सरकार में तत्कालीन गृह मंत्री पी. चिदंबरम की कठोर माओवादी नीति के ख़िलाफ़ उन्हीं की पार्टी के नेता दिग्विजय सिंह ने ही अभियान चला रखा था। उन्होंने एक बिजनेस अखबार में लेख लिखकर चिदंबरम की माओवादियों से लड़ने की नीति को कोसा था। वैसे भी, नक्सलियों को पोषित करके आज इतना बड़ा बनाने में कांग्रेस का सर्वाधिक योगदान है।
भाजपा की केंद्र और राज्य सरकारों का रुख रहा है कि सब तक विकास की बयार पहुंचे। इस संदर्भ में उल्लेखनीय होगा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी माओवादियों के गढ़ में दस्तक दे चुके हैं। वे 9 मई, 2015 को छतीसगढ़ के माओवादी प्रभावित इलाकों में विकास योजनाओं को हरी झंडी दिखाने जा चुके हैं। मोदी माओवादियों से देश की मुख्यधारा से जुड़ने का आहवान कर चुके हैं।
स्पष्ट है कि केन्द्र और राज्य सरकारें माओवादी प्रभावित क्षेत्रों का विकास चाहती हैं। सरकार माओवादी प्रभावित क्षेत्रों का विकास चाहती है। अब उसे उन तत्वों को कसना होगा जो विकास की बयार का पसंद नहीं करते। संतोषजनक बात यह है कि सरकार इस दिशा में गंभीर है और उम्मीद की जा सकती है कि शीघ्र ही ऐसे नक्सलियों जो विकास की बयार से दूर हट हिंसा के रास्ते को अख्तियार कर रहे हैं, उनके खिलाफ और अधिक सख्ती से निपटने के लिए सरकार कदम उठाएगी।
(लेखक यूएई दूतावास में सूचनाधिकारी रहे हैं। वरिष्ठ स्तम्भकार हैं। इस लेख में प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)