केजरीवाल और सिसोदिया आखिर केंद्र से पैसा मांगकर क्या साबित करना चाह रहे हैं? इससे साबित तो केजरीवाल की यही नीति होती है कि पहले मुफ्तखोरी की राजनीति से प्रेरित वादे करके सत्ता में आ जाओ, उसके बाद यदि कोई संकट या समस्या उत्पन्न हो तो बेशर्मी से खजाना खाली होने की दुहाई देकर केंद्र से पैसा मांगने लगो। क्या दिल्ली सरकार की इस हरकत से एक राजनीतिक अराजकता नहीं पैदा होगी?
इसमें कोई संदेह नहीं है कि कोरोना महामारी ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया है। हर आम व खास इसके प्रभाव की जद में आया है और संक्रमण के चलते पैदा हुए हालातों का दूरगामी असर दिखाई दे रहा है।
केंद्र सरकार ने सभी राज्यों को अपने क्षेत्रों में निगरानी रखने एवं उसके अनुसार उचित फैसला लेने को कहा है। इसपर अमल भी हो रहा है लेकिन विडंबना है कि देश की राजधानी दिल्ली लगातार एक के बाद एक गलत फैसलों का खामियाजा भुगत रही है।
इसकी जिम्मेदार केजरीवाल सरकार है जो विवेकहीन होकर बेतुकी व्यवस्थाएं बना रही है। यदि हम केजरीवाल सरकार के पिछले कुछ निर्णय देखें तो पाएंगे कि केजरीवाल ने बेहद जल्दबाजी में बिना पुख्ता होमवर्क किए निर्णय लिए हैं।
जब केंद्र सरकार ने राज्यों में सख्त नियमों की शर्त पर शराब दुकानें खोलने की अनुमति दी तो दिल्ली सरकार ने शराब पर अगले ही दिन रातोंरात भारी भरकम टैक्स लगाकर सभी को हैरानी में डाल दिया। सोशल मीडिया में तो इस टैक्स को जजिया कर तक कहकर कटाक्ष किया गया।
अब चूंकि आज 8 जून से देश में अनलॉक के तहत काफी छूट के साथ धर्मस्थल, शॉपिंग मॉल्स, रेस्टोरेंट, होटल आदि बहुत कुछ खुल गए हैं तो यहां भी उन्होंने मौका देखकर बीती रात यानी 7 जून की रात को ही तुरंत यह टैक्स वापस ले लिया जबकि आंकड़े कहते हैं कि उक्त टैक्स से दिल्ली सरकार को 2 अरब के राजस्व की प्राप्ति हुई।
खैर, केजरीवाल कब क्या देखकर निर्णय लेते हैं, यह समझ से परे होता है। उनके बयान भी कम चौंकाने वाले नहीं होते। उन्होंने पिछले दिनों बड़ी अटपटी बात कही कि दिल्ली सरकार यहां के अस्पतालों में बाहरी राज्यों के मरीजों का इलाज नहीं करेगी।
ऐसा कहकर उन्होंने फिर क्षेत्रीयता और सामाजिक द्वेष को भड़काने का काम कर दिया। उनके इस निर्णय पर आम आदमी पार्टी के बागी नेता एवं ख्यात कवि कुमार विश्वास ने सार्वजनिक सवाल पूछ डाला कि बताइये देश को कि इस समय दिल्ली के अस्पतालों में कितने ऐसे मरीज हैं जो बाहरी राज्यों के हैं।
केजरीवाल ने उक्त फैसला कैबिनेट की बैठक में यह हवाला देकर लिया था कि दिल्ली में कोरोना के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं, इसलिए बाहरी लोग भर्ती हुए तो स्थानीय लोगों का इलाज कैसे होगा। यदि यही अंतिम तर्क होता तो ठीक था, लेकिन उनके फैसले को हरियाणा के गृहमंत्री अनिल विज ने धता बता दिया।
उन्होंने तुरंत कहा कि दिल्ली सरकार ने जिन मरीजों के अस्पताल में जाने पर रोक लगा दी है, वे अब हरियाणा का रूख कर रहे हैं, लेकिन चिंता की कोई बात नहीं है। हरियाणा सरकार सभी का इलाज करेगी, हम किसी को मना नहीं करेंगे।
यह बोलकर विज ने स्पष्ट संकेत दे दिया कि मरीज मात्र मरीज है। वह इस देश का मरीज है, देश का नागरिक है। इस संकट के दौर में भी क्षेत्रीयता की बात करना संकीर्णता के अलावा कुछ नहीं है।
अपनी विवेकहीनता की पराकाष्ठा पर जाकर इसके बाद अरविंद केजरीवाल सरकार ने बड़ी बेशर्मी से केंद्र सरकार से आर्थिक मदद मांगी है और इसके पीछे यह दुहाई दी है कि उनके पास अपने कर्मचारियों का वेतन देने के लिए भी पैसे नहीं हैं।
दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को पत्र लिखकर 3500 करोड़ रुपए प्रतिमाह की आर्थिक सहायता मांगी और कहा कि राज्य सरकार को 7 हजार करोड़ रुपए की दरकार है।
उन्होंने कोरोना संकट में काम कर रहे डॉक्टर, इंजीनियर्स को वेतन देने के लिए फंड की कमी का रोना रोया, जबकि यह आश्चर्य की बात है कि अकेले कोरोना सेस के चलते शराब की बिक्री से ही दिल्ली सरकार ने करोड़ों रुपए के राजस्व की कमाई की थी।
यहां यह बात अहम नहीं है कि उनके पास कितना पैसा है और कितना नहीं, यहां जो बात चौंकाती है वह यह है कि यह वही केजरीवाल हैं जो पिछले दिनों फिर से मुख्यमंत्री बने हैं। मुख्यमंत्री बनने के पहले उन्होंने दिल्ली के मतदाताओं को जमकर मु्फ्त सुविधाएं बांटने का लालच दिया। इसके साथ ही चुनाव से पूर्व तथा उसके बाद विज्ञापनों पर भी केजरीवाल सरकार ने भारी खर्च किया है।
मुफ्त सुविधाएं बांटने के वादों पर वे फिर से सत्ता में काबिज हो गए और अब जाने किस मुंह से पैसे न होने का रोना रो रहे हैं और केंद्र के आगे हाथ फैलाने में लगे हैं। जबकि हाल ही में केंद्र ने पूरे देश के लिए 20 लाख करोड़ रुपए का आर्थिक पैकेज घोषित किया है।
स्वयं वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने चार दिनों तक लगातार प्रेस वार्ता करके एक-एक पैसे का पूरा हिसाब पेश किया। जाहिर है, इसमें कोरोना वॉरियर्स के लिए भी बहुत कुछ है। जब सभी को राहत दी जा रही है तो दिल्ली भी उसमें समाहित ही समझिये। फिर दिल्ली के लिए अलग से झोली फैलाने का भला क्या तुक है।
दूसरी चीज कि केजरीवाल और सिसोदिया आखिर केंद्र से पैसा मांगकर क्या साबित करना चाह रहे हैं? इससे साबित तो केजरीवाल की यही नीति होती है कि पहले मुफ्तखोरी की राजनीति से प्रेरित वादे करके सत्ता में आ जाओ, उसके बाद यदि कोई संकट आए तो बेशर्मी से खजाना खाली होने की दुहाई देकर केंद्र से पैसा मांगने लगो। क्या दिल्ली सरकार की इस हरकत से एक राजनीतिक अराजकता नहीं पैदा होगी?
बहुत संभव है कि अन्य राज्यों के विपक्षी मुख्यमंत्री भी इससे परोक्ष रूप से दुष्प्रेरित हो जाएं और कल से वे भी उल्टी-सीधी मांग करने लगें। संकट के दौर में केजरीवाल सरकार के इन अविवेकपूर्ण निर्णयों, नीतियों और व्यवहारों को देखकर ऐसा लगता है जैसे केजरीवाल ने दिल्ली को राजनीति की प्रयोगशाला बनाकर रख दिया है। कुल मिलाकर दिल्ली के देश की राजधानी होने की गरिमा को उन्होंने खंडित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
बहरहाल यह अच्छी बात है कि देश में कोरोना संक्रमण के साथ ही रिकवरी रेट भी बढ़ा है। करीब ढाई लाख संक्रमितों की तुलना में करीब सवा लाख मरीज स्वस्थ हुए हैं, शेष एक्टिव केस हैं। यदि यही गति रही तो जल्द ही कोरोना की मारक क्षमता घटेगी और देश जल्द इस महामारी से बाहर आने लगेगा। देश तो देर-सबेर कोरोना से जीत जाएगा लेकिन अरविंद केजरीवाल इस संकटकाल में अपने बचकाने निर्णयों के चलते जनता का विश्वास जरूर हार चुके हैं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)