राजद कार्यकर्ताओं ने बीजेपी कार्यकर्ताओं की पिटाई की और पथराव भी किया। इस हमले में बीजेपी के 6 कार्यकर्ता घायल बताए जा रहे हैं। पथराव में कई गाड़ियों को भी नुकसान पहुंचा है। काफी देर तक चले इस हंगामे के बाद पुलिस ने मोर्चा संभाला और मामले को शांत कराया। इस पूरे प्रकरण पर भाजपा कार्यालय के सचिव ललित यादव ने कोतवाली थाने में राजद कार्यकर्ताओं के खिलाफ प्राथमिकी भी दर्ज कराई है। सवाल उठता है कि क्या बिहार में अब यही क़ानून का राज रहा गया है कि केन्द्रीय एजेंसी की किसी कानूनी कार्यवाही के बदले भाजपा के खिलाफ हिंसा होगी ? क्या बिहार में अब क़ानून का राज नहीं, राजद कार्यकर्ताओं का जंगलराज चलेगा ?
विगत दिनों सीबीआई ने लालू यादव के कई ठिकानों पर छापेमारी की, जिसके बाद बौखलाए राजद कार्यकर्ताओं ने इसे भाजपा सरकार की बदले की कार्रवाई बताते हुए भाजपा के पटना कार्यालय पर हमला कर दिया। यह लोकतंत्र के लिए बेहद शर्मनाक है। किसी भी बड़े राजनेता के घर पर छापा पड़ना कोई नई बात नहीं है। कोर्ट (न्यायपालिका) ने न जाने कितनी बार नेताओं को झटका दिया है।
इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला किसे याद नहीं होगा जो कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ था। जिसके चलते उन्होंने एमरजेंसी लगवाई। मनमुताबिक जज रखने के बावजूद उन्हे राहत नहीं मिली। कुछ महीने पहले जयललिता की मृत्यु के बाद वहां की राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान बनाने का प्रयास करने वाली शशिप्रभा को कोर्ट ने उस दिन झटका दिया जिस दिन वो मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने की फिराक में थी। कहने का आशय है कि यह लालू प्रसाद यादव, अरविंद केजरीवाल आदि नेता खुद पर कानूनी कार्यवाही के लिए सरकार पर जिस तरह के आरोप लगा रहे हैं, वो बेबुनियाद हैं। लालू प्रसाद तो पिछले कई मामलों में दोषी हैं और वह देश के पहले ऐसे नेता भी हैं, जिनके चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध है।
यह देश एक लोकतांत्रिक है। यहाँ हर संस्था अलग-अलग काम करती है। लालू के केस में भी किया। मगर, लालू प्रसाद यादव, उनका परिवार, उनके समर्थक एकदम बिलबिलाये हुए हैं। कोई इसे भाजपा की साजिश बता रहा है, तो कोई सीबीआई का बेजा इस्तेमाल कह रहा है। इस बिलबिलाहट का सबसे कुरूप चेहरा बीजेपी कार्यालय पर राजद कार्यकर्ताओं द्वारा हमले के रूप में सामने आया। लाठी-डंडे से लैस करीब 250 राजद कार्यकर्ता बीजेपी कार्यालय पहुंचे और हंगामा-प्रदर्शन करने लगे।
राजद कार्यकर्ताओं ने बीजेपी कार्यकर्ताओं की पिटाई की और पथराव भी किया। इस हमले में बीजेपी के 6 कार्यकर्ता घायल बताए जा रहे हैं। पथराव में कई गाड़ियों को भी नुकसान पहुंचा है। काफी देर तक चले इस हंगामे के बाद पुलिस ने मोर्चा संभाला और मामले को शांत कराया। इस पूरे प्रकरण पर भाजपा कार्यालय के सचिव ललित यादव ने कोतवाली थाने में राजद कार्यकर्ताओं के खिलाफ प्राथमिकी भी दर्ज कराई है। सवाल उठता है कि क्या बिहार में अब यही क़ानून का राज रहा गया है कि केन्द्रीय एजेंसी की किसी कानूनी कार्यवाही के बदले भाजपा के खिलाफ हिंसा होगी ?
आखिर इस तरह की हरकतों से लालू यादव और उनके कार्यकर्ता क्या नजीर प्रस्तुत करना चाहते हैं ? क्यों कोई भी यह जवाब नहीं दे रहा है कि अगर लालू के पास बेनामी संपत्ति नहीं है, तो फिर सीबीआई की कार्यवाही से उन्हें इतनी बिलबिलाहट क्यों है ? अपने एक ट्वीट में जदयू के प्रवक्ता के सी त्यागी ने कहा कि “उस समय की परिस्थितियों में गठबंधन किया गया था। अब 5 साल तक उसे चलाना हमारी मजबूरी और जिम्मेदारी है।” यह महागठबंधन के लिहाज कोई बहुत अच्छा बयान नहीं कहा जा सकता। यह पहली बार नहीं हुआ है, जब महागठबंधन में शामिल नेताओं की राय एक ही विषय में जुदा-जुदा हो। पहले भी यह देखा गया है। जहाँ एक तरफ नीतीश ने नोटबंदी की तारीफ की थी, वहीं लालू और उनके पुत्रों ने इसे देश के साथ धोखा और घोटाला आदि बताया था।
लालू के समर्थक जो ये तोड़-फोड़ कर रहे हैं, ये उनकी हताशा को दर्शाता है। दरअसल लालू यादव समेत अभी इस देश में ऐसे कई नेता और भी हैं, जिन्होंने अपने जीवन में घटने वाली किसी सामान्य सी घटना के लिए भी बीजेपी और नरेंद्र मोदी को जिम्मेदार ठहराना अपना शग़ल बना लिया है। यह सही नहीं है।
जहां एक तरफ केजरीवाल अपने ही सहयोगी पूर्व मंत्री द्वारा लगाए गए घपलों के आरोपों का सामना कर रहें हैं, वहीं दूसरी तरफ मायावती बुरी तरह चुनाव हारने के बाद से लगातार अपने ही लोगों के निशाने पर हैं। उन पर पैसों के लेन-देन का आरोप उन्हीं की पार्टी के कार्यकर्ता लगा रहे हैं। वहीं सपा में अखिलेश और मुलायम के बीच अस्तित्व की लड़ाई जारी है। कांग्रेस भी कई मामलों में अदालत के चक्कर काट रही है। तो क्या ये कहा जाए कि ये सभी कार्यवाही बदले के लिए की जा रही हैं और सीबीआई का बेजा इस्तेमाल किया जा रहा है ?
उचित होगा कि ये नेता ऐसे उल-जुलूल आरोप लगाने की बजाय जांच एजेंसियों को जांच में सहयोग करें और अगर वे निर्दोष होंगे, तो जांच की आंच से तपकर बेदाग़ बाहर आ जाएंगे। लेकिन, जांच के जवाब में सरकार पर फिजूल के आरोप लगाना और हिंसा का सहारा लेना एक लोकतान्त्रिक राष्ट्र में कत्तई उचित नहीं है।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)