मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया जैसी कारगर पहलों का नतीजा है कि भारत अब इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की विनिर्माण धुरी बन रहा है। उदाहरण के लिए 2014 में जहां मात्र छह करोड़ मोबाइल हैंडसेटों का निर्माण होता था, वहीं 2017 में यह बढ़कर 17.5 करोड़ पर पहुंच गया। इलेक्टॉनिक क्षेत्र में विनिर्माण को बढ़ावा देने के लिए मोदी सरकार ने मोडिफाइड स्पेशल इंसेंटिव पैकेज स्कीम और इलेक्ट्रॉनिक मैन्यूफैक्चरिंग क्लस्टर कार्यक्रम को शुरू किया। इसका नतीजा यह हुआ कि 2016-17 में पहली बार देश में इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों का घेरलू उत्पादन आयात से अधिक हो गया।
आज भारत दुनिया भर की कंपनियों का बाजार बना है तो इसके लिए कांग्रेस सरकारों की भ्रष्ट और वोट बैंक की राजनीति जिम्मेदार है। आजादी के बाद से ही हमारे यहां बड़ी-बड़ी औद्योगिक इकाइयों और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (आइआइटी) को विकास का पर्याय मान लिया गया। इसी का नतीजा है कि भारत की पहचान कच्चा माल आपूर्ति करने वाले देश के रूप में होने लगी है। दूसरी चूक यह हुई कि उदारीकरण के दौर में भारत ने कृषि आधारित अर्थव्यवस्था से सेवा केंद्रित अर्थव्यवस्था में छलांग लगा दी।
उस समय यह तर्क दिया गया कि सेवा क्षेत्र से पैदा हुई समृद्धि जब नीचे तक पहुंचेगी तो गरीबी, बेकारी, असमानता, कृषि पर जनभार जैसी समस्याओं का अपने आप समाधान हो जाएगा। लेकिन भ्रष्ट कांग्रेसी संस्कृति के कारण हमारे यहां “रिसन” का सिद्धांत “वाष्पन” में बदल गया और गरीबी के समुद्र में अमीरी के टापू उतराने लगे। इसी का परिणाम है कि उदारीकरण के दौरान सिर्फ कुशल पेशेवरों को मोटे वेतन के रूप में लाभ पहुंचा, निचले स्तर के अकुशल लोग मुंह ताकते रह गए। चपरासी की नौकरी के लिए एमबीए और इंजीनियरिंग पास युवकों की भीड़ का कारण यही है।
घरेलू विनिर्माण को बढ़ावा न देने के कारण भारत विदेशी सामानों का सबसे बड़ा उपभोक्ता बन गया। यदि केवल इलेक्ट्रॉनिक सामानों की बात की जाए तो भारत का सालाना आयात तीन लाख करोड़ रूपये से ज्यादा का है। इसमें सिमकार्ड, सेट टॉप बॉक्स, एलसीडी, एसी, माइक्रोवेव, वाशिंग मशीन,म्यूजिक सिस्टम, मोबाइल हैंडसेट जैसे हजारों सामान शामिाल हैं। क्या यह शर्म की बात नहीं है कि एक ओर हम विदेशी उपग्रहों को अपनी धरती से भेज रहे हैं तो दूसरी ओर रोजमर्रा के काम आने वाले घरेलू सामानों के लिए विदेशों का मुंह ताकते हैं।
इसी को देखते हुए प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने भारत को “वैश्विक बाजार” के बजाए “वैश्विक विनिर्माण धुरी” बनाने का निश्चय किया। इसके लिए मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया जैसे नवोन्मेषी कार्यक्रम ही नहीं शुरू किए गए, बल्कि बिजली, सड़क, लॉजिस्टिक लागत में सुधार और प्रक्रियागत खामियों को दूर किया गया।
गौरतलब है कि गरीबी-बेरोजगारी-असमानता पर उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों का प्रभाव इस बात पर निर्भर करता है कि आम जनता को कैसी शिक्षा दी जा रही है, आधारभूत ढांचा कैसा है और श्रम बाजार व अन्य संस्थाओं की क्या दशा है। दरअसल शिक्षा श्रमिकों को अपने काम और कौशल के हिसाब से नए सिरे से एडजस्ट करना सिखा देती है। लैटिन अमेरिका में गरीबी उन्मूलन में श्रमिकों की कौशल संपन्नता का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इसी तरह बांग्लादेश, कंबोडिया और वियतनाम के गरीबी उन्मूलन में गारमेंट व्यवसाय की अहम भूमिका रही है।
मोदी सरकार ने सबसे ज्यादा जोर इलेक्ट्रॉनिक विनिर्माण पर दिया। सरकार ने घरेलू विनिर्माण को बढ़ावा देने के लिए एक ओर इलेक्ट्रॉनिक सामानों और छोटे उपकरणों पर आयात शुल्क बढ़ाया तो दूसरी ओर घरेलू कंपनियों को हर प्रकार की सुविधा मुहैया कराई गई। इलेक्टॉनिक क्षेत्र में विनिर्माण को बढ़ावा देने के लिए मोदी सरकार ने मोडिफाइड स्पेशल इंसेंटिव पैकेज स्कीम और इलेक्ट्रॉनिक मैन्यूफैक्चरिंग क्लस्टर कार्यक्रम शुरू किया। इसका नतीजा यह हुआ कि इलेक्ट्रॉनिक क्षेत्र में विदेशी निवेश तेजी से बढ़ा।
उदाहरण के लिए 2014 में जहां इस क्षेत्र में महज 11,000 करोड़ रूपये का निवेश हुआ था वहीं 2016 में यह निवेश बढ़कर 1.43 लाख करोड़ रूपये और 2017 में 1.57 करोड़ रूपये तक पहुंच गया। इलेक्ट्रॉनिक क्षेत्र में बढ़े निवेश और कारोबारी माहौल के परिणामस्वरूप इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों के घरेलू उत्पादन में तेजी आई। 2016-17 में पहली बार इलेक्ट्रॉनिक सामानों का घरेलू उत्पादन आयात से अधिक हो गया। इस दौरान देश में 3.22 लाख करोड़ रूपये के इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों का निर्माण हुआ जबकि इसके मुकाबले आयात केवल 2.80 लाख करोड़ रूपये के उत्पादों का हुआ।
घरेलू विनिर्माण में आई तेजी को मोबाइल हैंडसेट निर्माण में मिली अभूतपूर्व कामयाबी से समझा जा सकता है। 2014 में जहां देश में महज छह करोड़ मोबाइल हैंडसेटों का निर्माण होता था, वहीं 2017 में यह बढ़कर 17.5 करोड़ तक पहुंच गया। अब तो स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि जो कंपनियां अभी तक चीन की विनिर्माण इकाइयों पर निर्भर थीं, वे भारत में अपने ब्रांड के मोबाइल हैंडसेट बनवा रही हैं। इनमें ओप्पो, वीवो, हुवेई, लावा और जियोनी जैसी कंपनियां शामिल हैं।
इतना ही नहीं अब तो दुनिया की दिग्गज मोबाइल हैंडसेट कंपनी एप्पल ने बंगलुरू में मोबाइल हैंडसेट की एसेंबली शुरू कर दी है। हैंडसेट निर्माण में हुई इस क्रांति से न केवल हैंडसेट की कीमतों में कमी आई बल्कि देश में रोजगार के लाखों मौके भी पैदा हुए। स्पष्ट है जल्दी ही वह दिन आएगा जब भारत में बने मोबाइल हैंडसेट दुनिया भर के बाजारों में अपनी धाक जमाएंगे। कमोबेश यही हालत अन्य इलेक्ट्रॉनिक सामानों की भी होगी। स्पष्ट है मोदी सरकार देश को विनिर्माण धुरी बनाने में कामयाब हो रही है।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)