भले ही कांग्रेस आम आदमी के लिए समर्पित रहने की बड़ी-बड़ी बातें करती हो लेकिन कांग्रेसी शासन काल में आम आदमी पद्म पुरस्कारों से दूर ही रहा। दरअसल पिछले सत्तर साल से सरकार में वामपंथी विचारधारा इस तरह हावी रही कि पद्म पुरस्कार वामपंथी रूझान वाले लोगों और हाईप्रोफाइल हस्तियों तक ही सिमटे रहे। मोदी सरकार के आते ही नीति-निर्माण से लेकर पद्म पुरस्कार तक में आम जनमानस केंद्र में आ गया।
आम आदमी तक बिजली, पानी, सड़क, बैंक-बीमा, रसोई गैस जैसी मूलभूत सुविधाएं मुहैया कराने वाली मोदी सरकार सम्मान के मामले में भी आम लोगों को प्राथमिकता दे रही है। यही कारण है कि हर साल दिए जाने वाले पद्म पुरस्कारों से अभिजात्यता का वर्चस्व गायब हो चुका है। राष्ट्रपति भवन में पुरस्कृत किए गए वर्ष 2020 के पद्म पुरस्कार विजेताओं की सूची देखने से एक बार फिर स्पष्ट हो गया कि मोदी सरकार की दृष्टि में आम आदमी सर्वोपरि है।
दरअसल 2014 में सत्ता में आने के बाद से मोदी सरकार का जोर ऐसे लोगों को चुनने पर रहा जिन पर उनके असाधारण योगदान के बावजूद अब तक ध्यान नहीं दिया गया हो। इसके लिए सरकार ने पद्म पुरस्कार के लिए नामिनेशन की प्रक्रिया को नए सिरे से बनाया। सभी राज्यों से ऐसे प्रतिभाशाली लोगों का पता लगाने के स्पेशल सर्च कमेटी बनाने के लिए कहा गया जिन्हें पद्म पुरस्कारों के लिए नामांकित किया जा सकता है। यही कारण है कि मोदी सरकार कई ऐसे गुमनाम लोगों को पद्म पुरस्कार से सम्मानित कर चुकी है जो चमक-धमक से दूर रहकर समाज में बदलाव लाने में जी जान से जुटे हैं।
आज सम्मानित किए गए विजेताओं में कई ऐसे नाम हैं जिन्होंने समाज में बदलाव लाने का क्रांतिकारी प्रयास किया है। सात साल की उम्र से मैला ढोने वाली उषा चौमार ने सुलभ इंटरनेशनल के सहयोग से राजस्थान के अलवर जिले में स्वच्छता की अलख जगाया। आज वह स्वच्छता के लिए संघर्ष और मैला ढोने के खिलाफ आवाज उठाने वाली संस्थान की अध्यक्ष हैं। दलित सशक्तीकरण को सम्मान देने का इससे बड़ा उदाहरण शायद ही मिलेगा।
इसी तरह स्वयं लकवाग्रस्त होते हुए भी दिव्यांगों के पुनर्वास का श्रेष्ठ कार्य करने वाले तमिलनाडु के एस रामकृष्णन को भी पद्म पुरस्कार से नवाजा गया। कमोबेश ऐसी ही दास्तां कर्नाटक के मैंगलोर शहर के संतरा विक्रेता हरेकला हजब्बा की है।
अपने गांव में स्कूल न होने के कारण हजब्बा पढ़ाई नहीं कर सके लेकिन शिक्षा के प्रति समर्पण ऐसा था कि अब वे शिक्षितों के लिए भी मिसाल बनकर उभरे हैं। संतरे की बिक्री से हुई आमदनी से हरेकला ने अपने गांव में स्कूल खोला और वह हर साल अपनी बचत का पूरा हिस्सा स्कूल के विकास के लिए देते हैं।
उत्तराखण्ड के डॉ. योगी एरन जी को राज्य में तीन दशक से जले-कटे पीड़ितों का मुफ्त इलाज करने हेतु पद्मश्री सम्मान से नवाजा गया। हाथियों के स्वास्थ्य क्षेत्र में काम करने वाले डॉक्टर कुशल कुंवर शर्मा को पद्म पुरस्कार मिलना मोदी सरकार के जन सरोकार को साबित करता है।
इसी तरह कर्नाटक की 72 वर्षीय तुलसी को पद्म पुरस्कार दिया गया है। तुलसी ने अपने जीवन में एक लाख से अधिक पेड़ लगाए और अपना पूरा जीवन पेड़ों को समर्पित कर दिया। पेड़-पौधों के बारे में उनकी व्यापक जानकारी को देखते हुए उन्हें जंगल का इनसाइक्लोपीडिया भी कहा जाता है।
महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के एक छोटे से गांव की राहीबाई सोमा पोपेरे को देसी बीजों को बचाने और उनके संवर्द्धन के लिए पद्म पुरस्कार दिया गया। इन्होंने अपनी लगन से देसी बीजों का एक बैंक बनाया जो किसानों के लिए लाभदायक है। राहीबाई सोमा पोपरे आज पारिवारिक ज्ञान ओर प्राचीन परंपराओं की तकनीकों के साथ जैविक खेती को एक नया आयाम दे रही हैं।
पिछले सात साल में इस तरह के सैकड़ों उदाहरण मिल जाएंगे जहां ऐसे गुमनाम योद्धाओं को पद्म पुरस्कार दिए गए जिनका सत्ता पक्ष या किसी खास विचारधारा से कोई संबंध नहीं रहा है। स्पष्ट है मोदी सरकार पद्म पुरस्कारों को अभिजात्यता से मुक्ति दिलाकर आम जन तक पहुँचाने में कामयाब रही है।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)