राष्ट्रीयता की भावना को एक बेहद जरुरी बात मानते हुए पं मदन मोहन मालवीय ‘भारतवासी और देशभक्ति’ शीर्षक की अपनी टिप्पणी में लिखते हैं कि ‘देशभक्ति उस भक्ति को कहते है कि जिसके आगे हम अपने को भूल जायँ, देश की उन्नति ही में अपनी उन्नति समझें, देश ही के यश में अपना यश समझें, देश ही के जीवन में अपना जीवन समझें और देश ही की मृत्यु में अपनी मृत्यु समझें। भारत का उद्धार करने वाली केवल एक राष्ट्रीयता है। अन्य कितने ही उपाय हम करें, जैसे कि बहुत से कर चुके हैं, परन्तु बिना राष्ट्रीयता का भाव उत्पन्न किए हुए देश का उद्धार करना दुष्कर है।’
संहतिः श्रेयसी पुंसां स्वकुलैरल्पकैरपि
(अपने भाईयों ही का मेल, चाहे थोड़े ही क्यों न हों, चाहे निर्बल क्यों न हो, अन्यों के साथ मेल करने से अच्छा है।)
गीता के श्लोक का उल्लेख करते हुए मालवीय जी भारतवासी और देशभक्ति शीर्षक के अपने संपादकीय लेख के जरिये जो भाव व्यक्त करते है, वह हमारा मार्ग प्रशस्त करने वाला है।
भक्त की अवधारणा स्पष्ट करते हुए श्रीकृष्ण कहते है-
“ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः ।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते।।
‘जो कि अपने समस्त कार्यों को मुझ भागवान को अर्पण कर देते हैं और अपनी एकाकी लगन से भगवान् ही का ध्यान और उपासना करते है।’
मालवीयजी कहते है कि भगवद-भक्ति में भक्ति का विषय श्री भगवान् हैं और देशभक्ति में देश। इसलिए इसी वाक्य के अनुसार सच्ची देशभक्ति उसे कहते है कि जिसमें जो कुछ करें-धरें, सब कुछ देश ही के लिए हो, और देश ही के कार्य हेतु प्रतिक्षण तत्पर रहें और एकाकी लगन से देश ही के ध्यान और उपासना में लगे रहें।
इसके बाद मालवीयजी जो कहते है, वो बात आज की राजनीति पर बेहद सटीक बैठती है। सर्जिकल स्ट्राइक ही नही, राष्ट्रीय मुद्दों से संबंधित कई विषयों पर राजनीतिक मतभिन्नता किस कदर भयावह हो जाती है, वह उनके लिए उस दौर में भी चिंता का विषय था। राजनीतिक हालात पर अपना रोष प्रकट करते हुए वे लिखते है कि ‘क्या हममें इस प्रकार की देश-भक्ति का लेशमात्र भी मौजूद है ? क्या हमारे यहाँ कि पार्टियाँ के दिमाग में प्रतिक्षण देश का ऐसा ही ध्यान रहता है ? कदापि नहीं। अन्य देशों में पार्टियाँ अवश्य हैं और एक दुसरे के अत्यंत विरुद्ध, परन्तु देश की भक्ति का सबके ह्रदय में इतना ध्यान रहता है कि वे अपने परस्पर के मतभेदों से स्वार्थप्रियता के कारण देश को हानि नही पहुँचने देते। दुनिया के कई देशों में राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरी रखनेवाली राजनीतिक चेतना का उदाहरण देते हुए मालवीयजी जी आगे लिखते है कि इंग्लैंड के लिबरल और कंजर्वेटिव आपस में लड़ते-झगड़ते हैं, परन्तु अपनी एक मुख्य शक्ति को, जो कि देश की उन्नति के लिए सबके ऊपर स्थापित की गई है, तीन-तेरह करना पसंद नही करते। ऐसे दलों का देश में होना उन्नति के लिए उपयोगी हो सकता हैं, परंतु दलों की भिन्नता का न होना किसी प्रकार हानिकारक नहीं है। जापान में, हमारी सम्मति में, दलों की भिन्नता बिल्कुल नही है। सब एकमत है और जापान उन्नति करता चला गया। भारतवर्ष में यह बात क्यों नही दिखायी पड़ती?’ एक तरह से गुस्सा प्रकट करते हुए वे आगे लिखते है कि ‘यदि भारतवर्ष के इतिहास पर दृष्टि डाली जाय तो मालुम होता है कि भारतवासियों की प्रकृति में ही फूट समा रही है। इसका कारण चाहे तो अविवेक समझ लीजिये और चाहे स्वार्थ-तत्परता। जिस प्रकार अन्य-अन्य देशों के कुटुम्बों की कोई न कोई मुख्य बात प्रसिद्ध होती है, भारतवर्ष में कुटुम्बों की फूट मशहूर है। पांडव और कौरव का उदाहरण देते हुए उन्होंने यह बताने की कोशिश की कि कैसे स्वार्थ ने एक बेहद शक्तिशाली साम्राज्य को आपस में न केवल बांटने का काम किया किया बल्कि युद्ध की विभिषका लेकर आई और अनेकों की जान ले गई।
देशहित के कार्य करने के संबंध में मालवीयजी अपने समय के परिप्रेक्ष्य में एक बड़ी बात कह जाते है, जो आज के समय में भी महत्वपूर्ण है। ‘देशभक्ति का धर्म’ शीर्षक अपनी संपादकीय टिप्पणी में वे लिखते है कि ‘हमारे देश में धर्म और कर्त्तव्य की दृढ बुद्धि से देश व समाज के हित के लिए जतन करने वाले पुरुषों की संख्या अभी बहुत थोड़ी है, और यही कारण है कि यद्यपि देश हित की चर्चा बहुत सुनाई पड़ती है, तथापि उतना कार्य होता नहीं दिखता। लोग सभा-कमेटी करने के उत्साह में आकर बड़े-बड़े कामों को प्रारंभ कर देते हैं, किन्तु चार ही दिन में उनका उत्साह और श्रद्धा ज्वर के वेग के समान घट जाती है।’
मालवीयजी की ये बातें भले ही सौ वर्ष पुरानी हों, परन्तु यह आज भी वैसे ही प्रासंगिक हैं, जैसे उस समय थीं। यह आज भी वैसे ही सोचने को विवश करतीं और राह दिखातीं नजर आती हैं। आज के दौर में ‘देशहित जिए हम, देशहित मरे हम’, यह संकल्प लेने में मालवीयजी की बातें हमें और प्रेरित करती नजर आती हैं।