बीते कुछ सालों में आबादी के एक बड़े हिस्से की आय में जरूर बदोतरी हुई है, लेकिन इसके साथ यह भी सच है कि हमारे समाज का एक तबका आज भी जीने-खाने के संकटों के बीच बसर कर रहा है, जिसका सबसे बड़ा कारण न्यूनतम मजदूरी का कम होना है। बहरहाल, न्यूनतम मजदूरी में सरकार द्वारा 5 गुना तक की बढ़ोत्तरी करने के प्रस्ताव को कारगर माना जा सकता है। सरकार की इस पहल से समाज के कमजोर एवं पिछड़े तबके की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति में निश्चित रूप से सुधार आयेगा।
अर्थव्यवस्था एवं देश के विकास में मजदूरों के योगदान को कम करके नहीं आँका जा सकता है। बावजूद इसके, देश के अनेक राज्यों में मजदूरों को दी जानी वाली मजदूरी आज भी बहुत कम है। ऐसी विसंगति को दृष्टिगत करके केंद्र सरकार ने मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी में इजाफा करने के लिये वीवी गिरि नेशनल लेबर इंस्टीट्यूट के फेलो अनूप सत्पथी के नेतृत्व में विगत वर्ष एक विशेषज्ञ समिति गठित की थी, जिसकी रिपोर्ट का प्रकाशन 11 फरवरी को किया गया है।
समिति को राष्ट्रीय स्तर पर न्यूनतम मजदूरी को निर्धारित करने की ज़िम्मेदारी दी गई थी। हालाँकि, विश्व के दूसरे देशों में इस दिशा में काफी पहले से कार्य किये जा रहे हैं। उदाहरण के तौर पर ब्राजील, रूस, दक्षिण अमेरिका आदि देशों ने अपने यहाँ एक समान न्यूनतम मजदूरी का निर्धारण काफी पहले ही कर दिया था, जबकि चीन, वियतनाम और मलेशिया ने न्यूनतम मजदूरी का एक अलग मॉडल चुना है, जो मजदूरों के कार्य क्षेत्र एवं उनके पेशेगत कार्यों पर निर्भर करता है।
समिति द्वारा न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने के प्रस्ताव से सबसे ज्यादा फायदा आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा, मेघालय आदि राज्यों को मिलने की संभावना है। समिति ने इन राज्यों में मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी में 2 से 5 गुना तक की बढ़ोतरी करने की सिफ़ारिश की है। एक नवंबर तक के आंकड़ों के मुताबिक आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में अकुशल मजदूरों की मजदूरी प्रतिदिन 69 रुपये या प्रति माह महज 1,794 रुपये है। समिति ने इन राज्यों में न्यूनतम मजदूरी को बढ़ाकर 380 रुपये प्रतिदिन करने की अनुशंसा की है।
मजदूरी का आकलन संबंधित राज्यों में जीने के लिये जरूरी संसाधनों की लागत और स्थानीय परिस्थितियों को ध्यान में रखकर किया गया है। समिति ने शहरी मजदूरों की मजदूरी में उनके आवास किराये की लागत को भी शामिल करने की बात कही है। फिलहाल, सबसे ज्यादा न्यूनतम मजदूरी, जो 538 रूपये प्रतिदिन है, दिल्ली में दी जा रही है।
हालाँकि, समिति ने 380 रुपये प्रति दिन मजदूरी, मजदूरों को देने का प्रस्ताव किया है, जो ज्यादातर राज्यों में वर्तमान में दी जा रही न्यूनतम मजदूरी की तुलना में बहुत ही ज्यादा है। मध्य प्रदेश में न्यूनतम और अधिकतम मजदूरी में 20 प्रतिशत का अंतर है, जबकि सिक्किम में यह 29 प्रतिशत है। दूसरे राज्यों में भी इस अंतर को उल्लेखनीय माना जा सकता है। समिति के अनुसार “न्यूनतम वेतन अधिनियम 1948” के तहत वैधानिक रूप से वेतन तय करने के बावजूद न्यूनतम मजदूरी में अंतर कमोबेश सभी राज्यों में मौजूद है।
फिलहाल, न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने के लिये कोई व्यवस्थित एवं प्रभावी प्रक्रिया देश में मौजूद नहीं है। मामले में राज्य ही मजदूरों की मजदूरी की दिशा तय करते हैं। अपितु, यह बहुत हद तक राज्य की वित्तीय क्षमता और सरकार की कल्याणकारी कदम उठाने की इच्छा शक्ति पर निर्भर करता है। बहरहाल, केंद्र सरकार को आशा है कि अगर समिति के प्रस्तावों को लागू किया जाता है तो मजदूरी के बीच के अंतर को जरूर कम किया जा सकता है।
केरल, जहाँ मजदूरों को ज्यादा न्यूनतम मजदूरी दी जाती है, वहां भी कृषि और निर्माण क्षेत्रों में वित्त वर्ष 2018-19 के दौरान महाराष्ट्र से मजदूरी कम हुई है। इस बात की पुष्टि अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठनों के वेज रिपोर्ट, 2018 से की जा सकती है। ऐसे में देश भर में समान न्यूनतम मजदूरी देने की व्यवस्था करने की जरूरत बढ़ जाती है। साथ ही साथ महँगाई एवं स्थानीय परिस्थितियों को दृष्टिगत करते हुए औसत न्यूनतम मजदूरी में प्रत्येक 2 से 3 वर्षों में बदलाव लाते रहने की भी आवश्यकता है।
कहा जा सकता है कि देश की एक बड़ी आबादी के लिये महँगाई आज भी एक बड़ी समस्या है। बीते कुछ सालों में आबादी के एक बड़े हिस्से की आय में जरूर बदोतरी हुई है, लेकिन इसके साथ यह भी सच है कि हमारे समाज का एक तबका आज भी दो वक्त का भोजन पाने से महरूम है, जिसका सबसे बड़ा कारण न्यूनतम मजदूरी का कम होना है। बहरहाल, न्यूनतम मजदूरी में सरकार द्वारा 5 गुना की तक बढ़ोतरी करने के प्रस्ताव को कारगर माना जा सकता है। सरकार की इस पहल से समाज के कमजोर एवं पिछड़े तबके की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति में निश्चित रूप से सुधार आयेगा।
(लेखक भारतीय स्टेट बैंक के कॉरपोरेट केंद्र मुंबई के आर्थिक अनुसंधान विभाग में कार्यरत हैं। आर्थिक विषयों पर दशकों से लेखन कर रहे हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)