योग से मजबूत हुई भारत की साख

शिवानन्द द्विवेदी

ऐतिहासिक मानदंडों पर योग को देखें तो भारतीय परम्परा में योग विद्या की अवधारणा कोई आज की बात नहीं है। बल्कि भारत में  वैदिक13450717_10157158244985165_1794034504328697574_n काल से ही योग विद्या को स्वास्थ्य जीवन शैली के लिए जरुरी उपकरण के तौर पर स्वीकार किया जाता रहा है। इसमें को कोई शक नहीं कि हमारा इतिहास दर्शन इस बात की पुष्टि करता है कि प्राचीन काल से ही भारत अपने तमाम विद्याओं एवं पद्धतियों की वजह से विश्वगुरु के रूप में ख्यातिलब्ध रहा है। योग विद्या भी उन्हीं में से एक है। हालांकि समयचक्र के परिवर्तन एवं  कालखंडों में हुए फेर ने ऐसे तमाम भारतीय परम्परागत जीवन पद्धति के उपकरणों को हाशिये पर लाकर छोड़ दिया, जो किसी जमाने में हमारे जीवन का अहम हिस्सा हुआ करते थे। अभी पिछले वर्ष संयुक्त राष्ट्र ने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस प्रस्ताव को १७७ देशों के समर्थन से अनुमति दी थी, जिसमे मोदी ने योग को वैश्विक स्तर पर लाने और अमल करने की बात कही थी। गौरतलब है कि २०१४ के अपने अमेरिकी दौरे के दौरान ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी २७ सितम्बर को संयुक्त राष्ट्र के समक्ष एक प्रस्ताव पेश किया था, जिसमे कहा गया था कि संयुक्त राष्ट्र योग को अन्तराष्ट्रीय योग दिवस के रूप में लाने के लिए विचार करे। प्रधानमंत्री मोदी के प्रस्ताव पर अमल करते हुए संयुक्त राष्ट्र ने ३ महीने के भीतर ही २१ जून को अन्तरराष्ट्रीय योग दिवस के रूप में मनाने का निर्णय कर लिया। कहीं न कहीं इसे प्रधानमंत्री मोदी के मुहीम की सफलता के तौर पर एवं भारत के लिए एक बड़ी कामयाबी के तौर पर देखा गया। हाशिये पर पड़े इस वैदिक आरोग्य संस्कार के पद्धति को प्रधानमंत्री मोदी ने पुन: वैश्विक मंच पर मजबूती से स्थापित किया है।  योग को स्वीकार करने वाले सैकड़ों देशों में, उत्तरी अमेरिका के २३ देश, दक्षिणी अमेरिका के ११ देश, यूरोप के ४२ देश, एशिया के ४० देश, अफ्रीका के ४६ देश एवं अन्य १२ देश शामिल हैं। योग को अन्तराष्ट्रीय मान्यता के तौर पर स्थापित होने के साथ-साथ वैश्विक इतिहास में दो रोचक घटनाएं भी हुई। संयुक्त राष्ट्र में यह रिकॉर्ड दर्ज हुआ है कि पहली बार कोई प्रस्ताव इतने बड़े बहुमत और इतने कम समय में पारित हुआ है। इस रिकॉर्ड के मायने यहीं बयां करते हैं कि भारत के प्रधानमंत्री मोदी के इस प्रस्ताव पर दुनिया वाकई गंभीर थी और उसी गंभीरता की परिणिति थी कि २१ जून को अन्तराष्ट्रीय योग दिवस के रूप में चिन्हित किया जा सका। हालांकि जब अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस के तौर पर जब पहला २१ जून नजदीक आ रहा था और दुनिया के १७७ देश अपनी स्वीकारोक्ति को अमली जामा पहनाने चुके थे, ऐसे में भारत उनके लिए योग का आदर्श देश बना। मगर दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति ये रही कि भारतीय संस्कृति से चिढ रखने वाले कथित वामपंथी एवं तथाकथित सेकुलर मिजाज के राजनीतिक को यह गौरव रास नहीं आया। इन कथित बुद्धिजीवियों एवं सेकुलरिज्म की राजनीति का दावा करने वाले राजनेताओं ने खुद को इससे अलग रखकर यह साबित किया है कि वे भारत की सांस्कृतिक विरासतों से कितना चिढ़ते हैं! सूर्य नमस्कार को लेकर हुए विरोध के बाद सरकार ने इस अनिवार्यता को ख़त्म कर दिया। मगर सवाल ये है कि आखिर भारत में रहकर भारत की संस्कृति से ही चिढ रखने वालों को क्या कहा जाय ? आखिर सूर्य कैसे साम्प्रदायिक हो गये, ये समझना असंभव लगता है। वैज्ञानिक तौर पर भी सूर्य प्रकाश ऊर्जा के स्त्रोत हैं एवं सूर्य से हर जाति, धर्म, देश को समान ऊर्जा मिलती है। लेकिन सेकुलरिज्म की आड़ में वैमनष्य का प्रपंच बो रहे लोगों को ये बात कभी समझ नहीं आती।  सेकुलरिज्म बनाम साम्प्रदायिकता की बहस में महत्वपूर्ण एवं अहम् मुद्दों का हाशिये पर जाना कोई नई बात नहीं है।  विवाद के केंद्र में योग एवं सूर्य नमस्कार को ही खड़ा कर दिया गया जो आज भी प्रासंगिक हो उठता है। बहस ये है कि योग के दौरान सूर्य नमस्कार, साम्प्रदायिक है अथवा सेकुलर ? बेशक योग को संयुक्त राष्ट्र द्वारा अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा दे दी गयी हो एवं दुनिया के सैकड़ों देश इसे अपना चुके हों, लेकिन भारत में ही इसको लेकर विरोध आदि के स्वर बेजा उठाये जाते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि जो व्यक्ति अनुशासित योग प्रक्रिया का जीवन में अनुकरण करता है, उसे सदैव स्वस्थ रहने का सुख प्राप्त होता है। वैश्विक स्वास्थ्य एवं विदेश नीति के तहत प्रस्तावित किये गए इस एजेंडे में भी मूलतया यही बात कही गयी थी कि योग मानव जरुरत की तमाम उर्जाओं का श्रोत साधन है। २१ जून को अन्तराष्ट्रीय योग दिवस मनाने सम्बन्धी इस घोषण में संयुक्त राष्ट्र द्वारा ये भी कहा गया कि योग को पूरी दुनिया में फैलाना एवं स्थापित करना जरुरी है। इस मामले में गौर करने वाली बात ये भी है कि इस दिवस को २१ जून को ही मनाने का प्रस्ताव भी प्रधानमंत्री मोदी ने ही दिया था। २१ जून को अन्तराष्ट्रीय योग दिवस मनाने के पीछे वैज्ञानिकता ये है कि उत्तरी गोलार्ध में २१ जून सबसे बड़ा दिन होता है, लिहाजा यही दिन ज्यादा बेहतर हो सकता है।  योग से जुड़े इस प्रस्ताव को पूरी दुनिया ने एकमत होकर स्वीकार किया। दरअसल कम संख्या में ही सही मगर भारत में कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनमे मन में यह पूर्वाग्रह है कि हर परम्परागत संस्कार को वो रुढ़िवादी परम्परा मान बैठते हैं। ऐसी थोड़ी बहुत आलोचनाओं के बीच भारत ने एकबार विश्व को पारम्परिक स्वास्थ्य प्रणाली का पाठ पढ़ाया है और दुनिया ने इसे स्वीकार भी किया है। योग के संदर्भ में अगर इसकी वैज्ञानिकता और भारतीय परम्पराओं में इसके वजूद की बात करें तो योग-प्रणाली का जिक्र विस्तार से तमाम वैदिक पुस्तकों में मिलता है। कई प्राचीन सभ्यताओं में योग क्रिया का प्रमाणित दर्शन प्राप्त होता है।  प्राचीन भारत में योग तपस्वियों, योगियों एवं आम मनुष्यों के जीवन की दिनचर्या का हिस्सा हुआ करता था। धीरे-धीरे बाहरी आक्रमणों एवं देश में अस्थिरिता की स्थिति ने इसके महत्व को कम कर दिया। लोग अंग्रेजी चिकत्सा पद्धति पर इतने निर्भर होते गए कि आरोग्य के स्थायी साधन के रूप में योग को शामिल करना ही भूल गये। योग हमे अस्वस्थ होने बचाता है जबकि दवाइयां हमे अस्वस्थ होने के बाद बचाती हैं। इस लिहाज से भी देखा जाय तो योग प्राथमिक जरूरत है। हालांकि वर्तमान में कुछ नाम जरुर प्रासंगिक हैं, जिन्होंने विपरीत परिस्थियों में भी योग को प्रचारित एवं प्रसारित करने की दिशा में काम किया है। ऐसे कुछ योग गुरुओं का जिक्र करें तो श्री तिरुमलाई कृष्णामचार्य, बीकेएस अयंगर, रामदेव  कुछ ऐसे ही नाम है जिन्होंने योग को फिर से उच्चाईयों पर पहुँचाया है। आधुनिक दौर योग गुरु रामदेव ने योग शिक्षा को विश्व भर में फैलाने का एक बड़ा काम किया है। हालांकि समय-समय पर योग के महत्व को स्वीकार करने वाले युगपुरुष इस धरा पर जन्म लेते रहे हैं। मसलन, महात्मा गांधी खुद योग प्रणाली को स्वस्थ जीवन के लिए जरुरी मानते थे। चूंकि योग आपसे आर्थिक व्यय की मांग नहीं करता है बल्कि आपके जीवन का कुछ छण मात्र ही मांगता है।  आज भले ही तमाम तरह के कृत्रिम व्यायाम के उपकरण आ गये हों लेकिन योग के में कृत्रिमता का जरा भी अस्तित्व नही था।  योग पूर्णतया प्राकृतिक एवं वैज्ञानिक प्रक्रिया है।

      आज जब एकबार फिर भारतीय वैदिक परम्परा का यह जीवन पद्धति विश्व पटल पर स्वीकार की जा रही है, तो इसे भारत के बढ़ते वैश्विक प्रभाव के तौर पर भी देखा जाना चाहिए। विरोध को दरकिनार करते हुए सख्ती से यह सन्देश देने की जरुरत है कि हर बात में सेकुलरिज्म की खोखली सियासत नहीं चलेगी। 

(लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउन्डेशन  में रिसर्च फेलो हैं)