इस तकनीक से खेती-किसानी करने की लागत लगभग शून्य होती है। वित्त वर्ष 2018-19 की आर्थिक समीक्षा में इसे छोटे किसानों के लिए आजीविका का एक आकर्षक विकल्प बताया गया है। अपने बजट भाषण में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि यह कृषि पद्धति नवोन्मेषी है, जिसके जरिये वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुनी की जा सकती है।
“शून्य बजट प्राकृतिक कृषि” ग्लोबल वार्मिंग और वायुमंडल में आने वाले बदलाव का मुकाबला एवं उसे रोकने में सक्षम है। इस तकनीक का इस्तेमाल करने वाला किसान कर्ज के झंझट से मुक्त रहता है। एक अनुमान के मुताबिक देश में करीब 40 लाख किसान इस विधि से कृषि कर रहे हैं। आम बजट में सुभाष पालेकर की “शून्य बजट प्राकृतिक कृषि” तकनीक को देशभर में अपनाये जाने की बात कही गई है।
गौरतलब है कि इस तकनीक से खेती-किसानी करने की लागत लगभग शून्य होती है। वित्त वर्ष 2018-19 की आर्थिक समीक्षा में इसे छोटे किसानों के लिए आजीविका का एक आकर्षक विकल्प बताया गया है। अपने बजट भाषण में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि यह कृषि पद्धति नवोन्मेषी है, जिसके जरिये वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुनी की जा सकती है।
क्या है शून्य लागत प्राकृतिक कृषि
इस तकनीक से देश में बीते सालों से देश के कुछ भागों में खेती-किसानी की जा रही है। प्राकृतिक कृषि ऑर्गेनिक खेती से अलग है, लेकिन कुछ लोग जानकारी के अभाव में दोनों को एक मान लेते हैं। ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद (सीईईडब्ल्यू) की 2018 की रिपोर्ट के मुताबिक “शून्य लागत प्राकृतिक कृषि” करने के लिये किसानों को कुछ प्रक्रियाओं को अपनाना होता है, जिसमें पहली प्रक्रिया ‘बीजामृत’ है। इसके तहत गोबर एवं गौमूत्र के घोल का बीजों पर लेप लगाया जाता है। दूसरी प्रक्रिया ‘जीवामृत’ है, जिसमें भूमि पर गोबर, गौमूत्र, गुड़, दलहन के चूरे, पानी और मिट्टी के घोल का छिड़काव किया जाता है, ताकि मृदा जीवाणुओं में बढ़ोतरी की जा सके।
तीसरी प्रक्रिया ‘आच्छादन’ है, जिसमें मिट्टी की सतह पर जैव सामग्री की परत बनाई जाती है, ताकि जल के वाष्पीकरण को रोका जा सके और मिट्टी में ह्यूमस का निर्माण हो सके। चौथी प्रक्रिया ‘वाफसा’ है, जिसमें मिट्टी में हवा एवं वाष्प के कणों का समान मात्रा में निर्माण करना है। “शून्य लागत प्राकृतिक कृषि” में कीटों के नियंत्रण के लिए गोबर, गौमूत्र और हरी मिर्च से बने विभिन्न घोलों का इस्तेमाल किया जाता है, जिसे ‘क्षयम’ कहा जाता है।
लागत
“शून्य लागत प्राकृतिक कृषि” के नाम के अनुसार इसकी लागत नहीं के बराबर है, क्योंकि इसमें खेती-किसानी मोटे तौर पर देसी गाय के गोबर एवं गौमूत्र की मदद से की जाती है। एक देसी गाय के गोबर एवं गौमूत्र से एक किसान तीस एकड़ जमीन पर शून्य लागत से प्राकृतिक कृषि कर सकता है। देसी प्रजाति के गाय के गोबर एवं मूत्र से जीवामृत, घनजीवामृत तथा जामन बीजामृत बनाया जाता है। इनका खेत में उपयोग करने से मिट्टी में पोषक तत्वों की वृद्धि के साथ-साथ जैविक गतिविधियों का विस्तार होता है।
जीवामृत का महीने में एक अथवा दो बार खेतों में छिड़काव किया जा सकता है। जबकि बीजामृत का इस्तेमाल बीजों को उपचारित करने के लिये किया जाता है। इस विधि से खेती करने वाले किसान को बाजार से किसी प्रकार की खाद और कीटनाशक रसायन खरीदने की जरूरत नहीं पड़ती है। फसलों की सिंचाई के लिये बिजली एवं पानी भी मौजूदा खेती-किसानी की तुलना में दस प्रतिशत ही खर्च होती है ।
शुरुआत
जापानी वैज्ञानिक और दार्शनिक मासानोबू फुकुओका ने सबसे पहले “शून्य लागत प्राकृतिक कृषि” को लोकप्रिय बनाया। उन्होंने सबसे पहले इस कृषि मॉडल का परीक्षण सिकोकू में अपने खेतों में किया। इसी वजह से इस तकनीक को शुरू करने का श्रेय श्री मासानोबू फुकुओका को दिया जाता है।
भारत में आगाज
भारत में “शून्य लागत प्राकृतिक कृषि” का चलन काफी पुराना है। हालाँकि, शून्य लागत प्राकृतिक कृषि को देश भर में लोकप्रिय बनाने का श्रेय सुभाष पालेकर को दिया जाता है। “शून्य लागत प्राकृतिक कृषि” तकनीक को आंध्र प्रदेश सरकार ने वर्ष 2015 में अपनाया। “शून्य लागत प्राकृतिक कृषि” पद्धति का देश के अनेक हिस्सों में भी प्रसार हुआ है। वित्त वर्ष 2018-19 की आर्थिक समीक्षा के अनुसार कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश उन अन्य राज्यों में शामिल हैं, जहां यह कृषि पद्धति तेजी से लोकप्रिय बन रही है।
सीईईडब्ल्यू ने वर्ष 2016 और वर्ष 2017 के दौरान आंध्र प्रदेश के 13 जिलों में रैयत साधिकरा संस्था की मदद से “शून्य लागत प्राकृतिक कृषि” पद्धति से खेती करने वाले किसानों के अनुभवों का अध्ययन किया था, जिसमें पाया गया कि तकनीक से खेती करने वाले किसानों की लागत में भारी कमी आई और उनके उत्पादन में बेहतरी आई।
“राष्ट्रीय कृषि विकास योजना” से “शून्य लागत” तकनीक का प्रसार
ताजा आर्थिक समीक्षा के मुताबिक “राष्ट्रीय कृषि विकास योजना” के तहत 704 गांवों के 131 संकुलों और परंपरागत कृषि विकास योजना के तहत 268 गांवों के 1,300 संकुलों में शून्य लागत प्राकृतिक कृषि को अपनाया जा रहा है। इस कृषि मॉडल को करीब 1,63,034 किसान अपना रहे हैं। हिमाचल प्रदेश में करीब 4,000 किसान इस कृषि प्रणाली को अपना रहे हैं। हिमाचल प्रदेश वर्ष 2022 तक पूर्ण रूप से “शून्य लागत प्राकृतिक कृषि” को अपनाने वाला पहला राज्य बन सकता है।
अनुसंधान की जरूरत
इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट रिसर्च (आईजीआईडीआर) के निदेशक महेंद्र देव के अनुसार “शून्य लागत प्राकृतिक कृषि” तकनीक किसानों की आय दोगुनी करने वाले मॉडलों में से एक हो सकता है। हालांकि अभी भी परंपरागत कृषि पद्धतियों की तुलना में “शून्य लागत प्राकृतिक कृषि” की उत्पादकता में बढ़ोतरी का पता लंबी अवधि में चलता है। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि इस तकनीक का इस्तेमाल करने से पहले विभिन्न कृषि जलवायु क्षेत्रों में परीक्षण एवं अध्ययन करने की जरूरत है, ताकि इस तकनीक का अधिकतम फायदा उठाया जा सके।
निष्कर्ष
कहा जा सकता है कि बदलते परिवेश में “शून्य बजट प्राकृतिक कृषि” तकनीक किसानों के लिये उपयोगी साबित हो सकता है। यह नवोन्मेषी तकनीक अभी अपने शैशव अवस्था में है और देश में मौजूद विविधिता को देखते हुए इस तकनीक के उपयोगी होने पर कुछ लोग सवाल उठा रहे हैं, लेकिन लंबी अवधि में इस तकनीक की राह में आ रहे मुश्किलों को दूर किया जा सकता है।
भले ही हमारा देश एक लोक कल्याणकारी देश है, लेकिन देश में मौजूद बड़ी आबादी को देखते हुए सभी की समस्याओं को सरकार दूर नहीं कर सकती है। इस दृष्टिकोण से देखा जाये तो “शून्य बजट प्राकृतिक कृषि” तकनीक को किसानों की समस्याओं का निवारण करने वाले विकल्प के रूप में देखा जा सकता है।
(लेखक भारतीय स्टेट बैंक के कॉरपोरेट केंद्र मुंबई के आर्थिक अनुसंधान विभाग में कार्यरत हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)