लोकेंद्र सिंह
दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के सर्वेसर्वा अरविन्द केजरीवाल अपने 21 विधायकों को लाभ का पद दिलाने के मामले में बुरी तरह फंस गए हैं। साफगोई से अपनी गलती स्वीकारने की जगह मुख्यमंत्री केजरीवाल हमेशा की तरह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर हमलावर हो गए। यही नहीं, इस बार तो उन्होंने हद ही कर दी है, अपने राजनीतिक भ्रष्टाचार को छिपाने के लिए उन्होंने राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को भी निशाना बना लिया। संभवत: मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल स्वयं को सभी संवैधानिक संस्थाओं और नियम-कायदों से ऊपर मानते हैं। अरविन्द केजरीवाल भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना आंदोलन की उपज हैं। सबसे पहले तो उन्होंने राजनीति में नहीं आने की कसम खाई थी। लेकिन, बाद में वह अपनी बात से पलट गए और राजनीति के नये पैमाने तय करने के लिए आम आदमी पार्टी बनाकर मैदान में आ गए। अब तक के उनके राजनीतिक करियर को देखकर सामान्य आदमी भी बता सकता है कि केजरीवाल ने राजनीति में शुचिता की कोई नई लकीर नहीं खींची है। बल्कि, उन्होंने एक अजीब किस्म की राजनीति को जन्म दिया है। अपने अपराध पर पर्दा डालने के लिए वह खुद को पीडि़त बताते हुए दूसरों पर हमलावर हो जाते हैं। उनके नेताओं-मंत्रियों पर आपराधिक और भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं, लेकिन उन्होंने ठोस संदेश देने वाली कोई कार्रवाई नहीं की। केजरीवाल के भरोसेमंद और दिल्ली सरकार के परिवहन मंत्री गोपाल राय पर भी भ्रष्टाचार का आरोप लगा है। हालांकि उन्होंने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया है, लेकिन इस्तीफे का कारण बनाया है बीमारी को।
बहरहाल, 21 विधायकों को संसदीय सचिव बनाने के मामले का ईमानदारी से विश्लेषण करें तो हम पाएंगे कि केजरीवाल ने अपने विधायकों की राजनीतिक लिप्सा को संतुष्ट करने का प्रयास किया था। दिल्ली सरकार में मुख्यमंत्री सहित सात विधायक ही मंत्री बन सकते हैं। लेकिन, 70 में से 67 सीट जीतने वाले केजरीवाल ने अपने साथियों के अहम को तुष्ट करने के लिए नियमों को ताक पर रखते हुए 21 विधायकों को संसदीय सचिव बनाने का रास्ता चुना। मुख्यमंत्री के इस फैसले के खिलाफ जैसे ही याचिका दायर की गई तब दिल्ली सरकार ने जनता द्वारा जनसेवा के लिए दिए गए बहुमत का दुरुपयोग करने का भी प्रयास किया। उन्होंने आनन-फानन में सदन बुलाकर 21 विधायकों को ‘ऑफिस ऑफ प्रॉफिट’ के मामले से बचाने के लिए विधेयक में संशोधन कर डाला। संशोधित विधेयक में कहा गया कि संसदीय सचिव के पद को लाभ का पद नहीं माना जाए और ‘बैक डेट’ इस विधेयक को लागू किया जाए। केजरीवाल इसे पुरानी तिथि से इसलिए लागू कराना चाहते थे ताकि 21 विधायकों की सदस्यता रद्द होने से बच जाए। बाद में यह विधेयक मंजूरी के लिए राष्ट्रपति के पास पहुंचा। लेकिन, राष्ट्रपति ने संशोधित विधेयक को असंवैधानिक मानते हुए लौटा दिया। इसी बात से ‘सरजी’ तिलमिला गए और उन्होंने इसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की साजिश करार दे दिया। बौखलाहट में केजरीवाल राष्ट्रपति पद की गरिमा का भी ख्याल करना भूल गए। उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री और गृह मंत्रालय के कहने पर विधेयक को लौटाया है।
दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल का कहना है कि विधेयक में कहा गया है कि संसदीय सचिवों को किसी प्रकार की सुविधा नहीं दी जाएगी। फिर कैसे संसदीय सचिव का पद लाभ का हो गया? हमारे विधायक तो संसदीय सचिव बनकर नि:शुल्क जनता की सेवा कर रहे हैं। क्या केजरीवाल बताएंगे कि जिन विधायकों को संसदीय सचिव नहीं बनाया गया है, वह जनता की सेवा नहीं कर रहे हैं? क्या जनता की सेवा के लिए विधायकों का संसदीय सचिव बनाया जाना जरूरी है? दरअसल, केजरीवाल ने जिस राजनीति का वायदा किया था, उसे सत्ता में आते ही उन्होंने भुला दिया है। 21 विधायकों को संसदीय सचिव बनाते समय संभवत: अरविन्द केजरीवाल भूल गए होंगे कि लोकतंत्र में बहुमत का मतलब यह नहीं होता कि जो मर्जी आए, वह किया जाए। सरकार सही दिशा में काम करे इसके लिए अनेक व्यवस्थाएं हैं। यही कारण है कि राजनीतिक भ्रष्टाचार पर पर्दा डालने के लिए लाए गए आआपा सरकार के विधेयक को राष्ट्रपति ने असंवैधानिक करार दे दिया। लेकिन, अरविन्द केजरीवाल चाहते हैं कि लोकतंत्र की शेष व्यवस्थाएं अपना काम नहीं करें। यदि यह व्यवस्थाएं केजरीवाल की तानाशाही पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर देती हैं तब वह इन सबको केन्द्र सरकार और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का हाथ का खिलौना कह देते हैं। केजरीवाल को समझना चाहिए कि सभी संस्थाएं अपना काम करती हैं। यही कारण है कि कांग्रेस सरकार के समय में ही सोनिया गाँधी को लाभ के पद पर रहने के कारण संसद की सदस्यता से हाथ धोना पड़ा था। उसके बाद वह दोबारा चुनाव जीतकर संसद पहुंची थीं। जब लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं अपना काम कर रही हैं तब अरविन्द केजरीवाल और आम आदमी पार्टी को अपनी नैतिकता का प्रदर्शन करना चाहिए। वरना लोग यही पूछेंगे कि ‘आप’की नैतिकता कहाँ गई?
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं, यह लेख उनके ब्लॉग से लिया गया हैं)