एनके सिंह
पंद्रह अगस्त, 1947 की बात है। देश आजादी का जश्न मना रहा था। वाराणसी के पास एक स्टेशन था कोढ़ रोड जिसे आज ज्ञानपुर कहते हैं। उस स्टेशन के सहायक
स्टेशन मास्टर फुन्न्न सिंह भी उत्साह में ऑफिस में बैठे थे। ट्रेन आने का टाइम हो गया था। किंतु एक भी आदमी टिकट लेने नहीं आया। फुन्न्न सिंह अचंभे में कार्यालय के बाहर निकले तो देखा कि सैकड़ों लोग प्लेटफार्म पर खड़े हैं। उन्होंने चिल्लाकर कहा – ‘अरे भाई टिकट ले लो, ट्रेन आने वाली है।” भीड़ का जवाब था – ‘अरे अब किस बात का टिकट! अब ये अंग्रेजों की ट्रेन थोड़े ना है, आज से ये हमारी ट्रेन है।”
बिहार में आज अपराधियों का भी यही भाव है। मानो कह रहे हों – ‘कैसा कानून, अब ये हमारा शासन है।” सीवान में एक पत्रकार की सरेशाम फलमंडी में गोली मारकर हत्या करना ‘जंगलराज” को शर्मसार करता है। जानवरों के भी कुछ कानून होते हैं। प्रजातंत्र के दार्शनिकों को कोई नया शब्द गढ़ना होगा ‘नए बिहार” के ‘सुशासन” को लेकर। लेकिन शब्द गढ़ने से क्या होगा? ‘जंगलराज” कहा गया था तो क्या जनता ने समझ लिया था इसका मतलब? नहीं, उसने कानूनरूपी नई गाड़ी को अपना माना और फिर शुरू हो गया तांडव। उसने जाति देखी। उसने अपना रॉबिन हुड पैदा किया और फिर उसे सत्ता की शक्ति का अदृश्य कवच पहना दिया। वर्षों से जेल में रहे एक खतरनाक अपराधी को एक सियासी दल ने बाकायदा अपनी पार्टी का पदाधिकारी बनाया। कानून को ‘फ्री की ट्रेन” समझने वालों ने लोगों को मारना शुरू किया।
कैसे शुरू होता है यह सिलसिला, इसे समझने की जरूरत है। सिस्टम पर विश्वास नहीं, लिहाजा जनता अपने पहचान समूह में फिर से वापस चली जाती है और उसमें तलाशती है एक रॉबिन हुड, यानी वह डकैत जो उसके विचार में अमीरों को तो लूटता है, पर गरीबों की शादी में उस लूट का कुछ अंशदान के रूप में दे देता है। कार्ल मार्क्स ने भी तो यही कहा था – ‘राज्य का उद्भव शोषण-जनित वर्ग संघर्ष को खत्म करने के अभिकरण के रूप में होता है, लेकिन कालांतर में राज्य के अभिकरण स्वयं शोषक हो जाते हैं।” तो किसी ठाकुर जाति के लोगों को किसी अपनी जाति के गुंडे में या किसी मुसलमान समाज के लोगों को एक मुसलमान गुंडे में अपना रहनुमा देखने में क्या दिक्कत है? कुछ दिन में ही इस ‘रॉबिन हुड” को मतदान के जरिए राज्य की शक्तियों से भी नवाज दिया जाएगा। रॉकी और शहाबुद्दीन को भी मालूम है कि जनता के बीच भी अपने को रॉबिन हुड के रूप मे स्थापित करने के लिए किसी बेगुनाह निहत्थे आदित्य या राजदेव रंजन को तो मारना ही पड़ेगा। चूंकि फिर कोई चश्मदीद गवाह आदित्य या रंजन नहीं बनना चाहेगा, लिहाजा गवाह बदल जाएंगे और मीडिया खामोश। अदालत को गवाह और सबूत चाहिए, जो सरकार और पुलिस जुटाती है। जब सत्ता मे भी रॉकी और शहाबुद्दीन की जरूरत होने लगे तो पुलिस क्या करेगी।
इसी साल मार्च में एक तस्वीर उजागर हुई थी, जिसमें सीवान जेल में वर्षों से बंद शहाबुद्दीन बिहार के मंत्री अब्दुल गफूर के साथ दिख रहे थे, साथ ही एक और नेता के साथ मिलकर ये तीनों जेल के नियमों के विरुद्ध नाश्ते-पानी का मजा ले रहे थे। बताया जा रहा है कि इस तस्वीर को पत्रकार राजदेव रंजन ने ही लीक किया था। लालू यादव ने हाल में सीवान के दहशत रूपी शहाबुद्दीन में जननेता बनने के ऐसे गुण देखे कि उसे अपनी पार्टी राजद की राष्ट्रीय कार्यकारिणी का सदस्य बनाने का ऐलान कर दिया।
उधर आदित्य सचदेव को मारने वाले रॉकी का पिता एक क्षेत्रीय बाहुबली है। इसे समझने हेतु आइंस्टीन का दिमाग नहीं चाहिए कि बाहुबली क्यों व कैसे पैदा होते हैं और उनका बेटा कैसे उन्हीं के नक्शेकदम पर चलता रॉबिन हुड की महिमामंडित संस्था पर बैठता है। किसी राजद या किसी जदयू को यह समझने में देर नहीं लगती कि बाहुबली का बल सत्ता का संरक्षण पाकर रामचरितमानस के उस बालि की तरह हो जाता है, जिसके सामने यदि शत्रु खड़ा भी हो जाए तो उसकी आधी शक्ति बालि के पास पहुंच जाती है। लिहाजा ऐसे भावी रॉबिन हुडों को तैयार करने के लिए पहले चरण में किसी नीतीश कुमार या किसी लालू यादव को उसकी मां में देश का रहनुमा नजर आने लगता है। और उसे चुनाव की जलालत न झेलनी पड़े, लिहाजा विधान परिषद में लाकर इस ‘नव-प्रजातांत्रिक प्रक्रिया” के तहत महिमामंडित किया जाता है। लालू यादव का जेल में बंद अपराधी शहाबुद्दीन को पार्टी में पद से नवाजना भी उसी ‘नव-प्रजातंत्र” का हिस्सा है।
प्रश्न यह नहीं है कि इस ‘नव-प्रजातंत्र” में रॉबिन हुड पैदा किए जा रहे हैं। प्रश्न यह है कि औपचारिक प्रजातंत्र, जिसमें एक संविधान होता है और कानून के राज की अपरिहार्य शर्त होती है, के प्रासाद में बैठकर कुछ नेता इसे ईंट-दर-ईंट तामीर कर रहे हैं और वह भी औपचारिक प्रजातंत्र की इमारत को गिराकर और उसी की ईंटों द्वारा।
प्रश्न यह भी नहीं है कि मुख्यमंत्री ने कुछ दिनों बाद उदारता दिखाते हुए पत्रकार हत्याकांड में सीबीआई जांच के आदेश दे दिए यह बताने के लिए कि सरकार ‘दूध का दूध, पानी का पानी” भाव रखती है। किंतु क्या सीबीआई जांच यह संदेश दे पाएगी कि निर्भीक होकर लिखिए? क्या कोई पत्रकार यह सोचकर भय-निर्मूल हो जाएगा कि अगर वह अपनी लेखनी के कारण चौराहे पर मारा गया तो उसके मरने के बाद मुख्यमंत्रीजी दूध-पानी अलग कर देंगे, जिससे उसके बच्चे यतीम नहीं होंगे? चिंता उस माहौल की है जिसमें चौराहे पर गोली मारने वाला इस उम्मीद में रहता है कि कोई सियासी दल उसकी ‘क्षमता” देख अगले चुनाव में टिकट देकर उसे मंत्री पद की शपथ दिलाएगा कि वह ‘भारत के संविधान में सच्ची निष्ठा” रखता है।
चिंता की वजह यह है कि आदित्य की बीच सड़क पर गोली मारकर कीगई हत्या के बाद भी प्रदेश के मुख्यमंत्री कहते हैं कि इसमें रॉकी की मां का क्या दोष है? लेकिन अगले 24 घंटे में ही शायद नीतीश कुमार को पता चला कि निर्दोष मां के घर में प्रतिबंधित शराब भी मिलती है। हालांकि अदालत में यह भी कहा जा सकता है कि किसी अदने नौकर ने यह शराब रखी है और वह नौकर उसे स्वीकार भी कर लेगा, जैसे रॉकी का कहना है कि वह घटना के समय दिल्ली में था और सभी गवाहों ने अचानक ‘किसी को भी आदित्य को गोली मारते नहीं देखा” कहना शुरू किया है।
मैकआइवर ने कहा था कि कानून का अनुपालन सामाजिक व्यवस्था के प्रति लोगों की प्रतिक्रिया के रूप में होता है और बिहार में इसके उलट अपराधियों के हौसले सत्ता की गुणवत्ता के प्रतिक्रिया के रूप में सड़कों पर दिखाई दे रहे हैं। सीवान में पत्रकार राजदेव रंजन की हत्या बिहार में प्रजातंत्र के घाव का बदबूदार मवाद है और अगर इसे छोड़ दिया गया तो यह मेटा-स्टासिस के स्टेज का कैंसर बनकर न केवल मीडिया, बल्कि पूरे बिहार को अपने आगोश में ले लेगा। तब शायद सत्ताधारी भी न बच पाएं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार है, यह लेख दैनिक नईदुनिया में 1८ मई को प्रकाशित हुआ था )