आशीष कुमार ‘अंशु’
जब किसी राय में नई सरकार का गठन होता है, राय में सरकार के समक्ष आने वाली चुनौतियों की चर्चा जरूर होती है। यदि केरल का उदाहरण लें तो इस एक राय के अंदर दो राय हैं। एक जहां गैर आदिवासी रहते हैं। जो संपन्न हैं, जिसकी चर्चा हम और आप पढ़ते हैं और आपस में बातचीत करते हुए चर्चा करते हैं और दूसरा वह क्षेत्र जहां आदिवासी रहते हैं। जिसकी चर्चा मीडिया में कम ही हो पाती है। आदिवासी क्षेत्र में लगातार जब नवजात शिशुओं की मृत्यु होती है, उस वक्त कुछ मीडिया वालों को और केरल के नेताओं को जरूर आदिवासियों की याद आती है लेकिन वह भी अधिक समय के लिए नहीं।
यह सच है कि केरल की पहचान शिक्षित-संपन्न और तेजी से विकास कर रहे राय के तौर पर पूरे देश में है लेकिन क्या केरल के आदिवासी क्षेत्रों तक ‘डेवलपमेन्ट’ का डी भी पहुंचा है? क्या केरल के अंदर आदिवासियों की सामाजिक-आर्थिक हालत बेहतर हैं? क्या केरल में आदिवासियों के बीच साक्षरता की स्थिति संतोषजनक है? क्या आदिवासी क्षेत्रों में गरीबी उन्मूलन हो पाया? जन स्वास्थ्य की स्थिति बेहतर हो पाई? इस भेदभाव पर विचार करना जरूरी है।
क्या केरल में सबकुछ उतना ही साफ सुथरा है जैसा कि दिल्ली से नजर आता है? इस बात को केरल के सामाजिक कार्यकर्ता तो कम से कम मानने को तैयार नहीं हैं। वे बताते हैं कि किस प्रकार आदिवासी क्षेत्रों में शिशु मृत्यु और आदिवासी परिवारों में कुपोषण बढ़ता जा रहा है। आदिवासियों को सस्ते दरों पर चावल जरूर मिलता है लेकिन यह कोई भी अछा डायटिशियन बता सकता है कि सिर्फ चावल के दम पर कुपोषण के खिलाफ आदिवासी क्षेत्रों में कोई लड़ाई नहीं जीती जा सकती है। अछे स्वास्थ्य के लिए प्रोटीन भी चाहिए। कुपोषण और एनीमिया आदिवासी क्षेत्रों में सामान्य स्वास्थ्य संबंधी समस्या बन गई हैं। पिछले पांच सालों में सिर्फ केरल के एक जिले पालक्कड़ में 595 नवजात शिशुओं की मौत हुई है। यह सच है कि सोमालिया की स्थितियां भारत से अलग हैं लेकिन क्या केरल में आदिवासियों की जो स्थिति है, उसकी तरफ से आंखे फेर लेना सही होगा? अट्टापड़ी प्रखंड में अधिकांश आदिवासी बचों का विकास अवरुद्ध है। अभी जिस पार्टी की सरकार केरल में बन रही है, उनके बड़े नेता वीएस अयूतानंदन भी मानते हैं कि आदिवासियांे के जीवन में सुधार के लिए कई तरह के पैकेज की घोषणा जरूर हुई है, लेकिन पैकेज का पैसा आदिवासी प्रखंड, तहसिल, गांवों तक नहीं पहुंचता। अब अयूतानंदजी की पार्टी सरकार में है। बयान उन्होंने विपक्ष में रहते हुए दिया था। ऐसे में क्या राय के आदिवासी इस बात के लिए आश्वस्त हो सकते हैं कि उनके जीवन में इस नई सरकार के आने से नई सुबह आएगी।
इकॉनॉमिक सर्वे 2015-16 के अनुसार केरल में शिशु मृत्यु दर प्रति एक हजार बचों पर 12 है, जो पूरे देश में सबसे कम है। जिसके लिए देश भर में केरल की तारीफ भी होती है लेकिन यदि बात केरल के ही अंदर आदिवासी परिवारों की करें तो वहां प्रति 1000 बचों पर यह संख्या 60 हो जाती है। विश्व बैंक के डाटा के अनुसार सोमालिया में शिशु मृत्यु दर 85 है। केरल में गैर आदिवासी क्षेत्रों में शिशु मृत्यु दर 12 और आदिवासी क्षेत्रों में 60 के बीच के अंतर पर केरल के नए बने मुख्यमंत्री को अवश्य विचार करना चाहिए। केरल की पहचान देश में एक साक्षर राय के तौर पर है लेकिन केरल में आदिवासी लड़कियों के बीच साक्षरता की दर 50 फीसदी से भी कम है। जबकि भारत में औसत साक्षरता दर 74.04 प्रतिशत है। आदिवासी लड़कियों के बीच केरल में साक्षरता की दर भारत के औसत दर से भी कम है।
कुपोषण की बात की जाए तो वर्ष 2012-13 में सिर्फ अट्टापेडी प्रखंड के अंदर कुपोषण की वजह से 63 आदिवासी बचों की मौत हुई। इस मृत्यु के बाद यूपीए की सरकार और राय की कांग्रेस सरकार ने 192 आदिवासी बस्तियों के लिए 400 करोड़ के पैकेज की घोषणा की थी लेकिन उसके बावजूद कुछ खास नहीं बदला।
पिछले साल अट्टापेड़ी प्रखंड में एक मेडिकल कैंप के दौरान 200 कुपोषित बचों की पहचान हुई। अधिकांश आदिवासी शिशु 2.8 किलो से कम थे। मतलब कम वजन के थे। नवजात शिशुओ की मृत्यु की वजह स्पष्ट है। गर्भवति मांओं को सही प्रकार से चिकित्सा सुविधा नहीं मिल पाती और उनके भोजन में पर्याप्त पोषक तत्वों का अभाव होता है। चिकित्सा टीम ने आदिवासी गर्भवति मांओं के लिए सिफारिश की थी कि इन महिलाआंे के लिए संतुलित आहार की व्यवस्था होनी चाहिए, जिसमें पर्याप्त पोषक तत्व मौजूद हों। इनकी नियमित निगरानी और चार्ट बनाकर इनके वजन का ध्यान रखने की जरूरत है।
केरल में आज भी कई ऐसे आदिवासी क्षेत्र हैं, जहां तक स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं पहुंची और गर्भवती महिलाओं को घर में ही प्रसव कराना होता है। उन्हें संस्थागत सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। केरल में आवश्यक स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव, आंगनवाड़ी की कमी और विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं की विफलता आदिवासी समाज की वर्तमान स्थिति के लिए जिम्मेवार है और आदिवासी लगातार कुपोषण के शिकार हो रहे हैं और उनके बचे कम वजन और मौत के।
मार्च 2015 में केरल के पूर्व मुख्यमंत्री ओमन चांडी का दिया हुआ एक बयान है, जिसमें श्री चांडी कहते हैं कि वे पैसों की कमी की वजह से मरते हुए आदिवासी बचों को बचा नहीं पा रहे हैं। किसी मुख्यमंत्री के द्वारा दिया गया इससे अधिक विचलित करने वाला क्या बयान हो सकता है?
केरल की नई सत्ताधारी पार्टी सिर्फ केरल के आदिवासियांे से किए गए वे सभी वादे पूरे कर दें जो केरल की पिछली सरकारों ने आदिवासियों से किए हैं, केरल के आदिवासियों को नया वादा नहीं चाहिए। वायनाड की आदिवासी नेता सीके जानू ऐसा मानती हैं। केरल में आदिवासी अधिकारों के लिए जो बड़े आंदोलन हुए, उनका एक प्रतिनिधि चेहरा हैं। केरल के श्रीजीत पानिकर अपने ब्लॉग में लिखते हैं- गर्व से भरे मलयालियों द्वारा दूसरे रायों से तुलना करने पर बेशक केरल बेहतर पाया जाता है। ऐसे में हम केरल के आदिवासियों की आर्थिक सामाजिक हैसियत की चर्चा करने वालों की बातों की उपेक्षा करके अपने-अपने अहंकार के साथ अपने अपने घरों में आराम से चादर तानकर सो सकते हैं।
श्रीजीत आगे लिखते हैं- ‘मैं किसी भी गर्वीले मलयाली से कम केरल पर गर्व नहीं करता लेकिन यह समय आत्मनिरिक्षण का है। केरल की सोमालिया से तुलना अतिश्योक्ति हो सकती है लेकिन एक आम केरल वाले से यदि हम केरल के आदिवासियों के जीवन की तुलना करें तो केरल जैसे राय में जहां बेहतरीन साक्षरता, जबर्दस्त स्वास्थ्य सुविधाएं हमें उपलब्ध है, वहां आदिवासियों के साथ हो रहा भेदभाव बहुत गहरा है। आदिवासियों के बीच बढ़ी शिशु मृत्यु दर हम सबके लिए शर्मनाक है। केरल के नेताओं को यहां के आदिवासियों की पुकार सुनाई क्यों नहीं दे रही जो एक आम मलयाली सुन पा रहा है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं, यह लेख दैनिक जागरण में २७ मई को प्रकाशित हुआ था )