हृदयनारायण दीक्षित
पक्ष निष्पक्ष नहीं होता। कोई भी विचार या वाद निरपेक्ष नहीं होता। प्रतिवाद भी होता है। जर्मन दार्शनिक हीगल ने वाद और प्रतिवाद से संवाद का रोचक उल्लेख किया है। संसदीय जनतंत्र की सफलता में वाद विवाद के साथ संवाद की महत्ता है। यहां जनादेश प्राप्त बहुमत सरकार चलाता है। जनादेश से ही आया अल्पमत प्रतिपक्ष का दायित्व निभाता है। दोनों पक्षों की अपनी महत्ता है। पं. जवाहर लाल नेहरू ने ठीक लिखा है कि संसदीय प्रणाली में न केवल सशक्त विरोधी पक्ष की आवश्यकता है, बल्कि सरकार और विरोधी पक्ष के बीच सहयोग भी आवश्यक होता है। विपक्ष देश के अल्पमत का प्रतिनिधि है। इसीलिए विपक्ष के नेता की विशिष्ट भूमिका है। विपक्ष को रचनात्मक आक्रामक होना चाहिए। उसे सरकारी नीति और कार्यक्रमों का विकल्प देना चाहिए। संप्रति भारतीय विपक्ष अपनी जिम्मेदारियों के निर्वहन में असफल है। नरेंद्र मोदी की सरकार के दो वर्षीय कामकाज की विवेचना हो रही है। विपक्ष के भी दो साल के कामकाज विचारणीय हैं। 1कांग्रेस पूरे दो साल हार के सदमे में रही। जीएसटी जैसे विधेयक उसकी अपनी नीति का हिस्सा थे, लेकिन कांग्रेस ने जीएसटी सहित तमाम विधेयकों का लगातार विरोध किया। व्यर्थ के मसलों पर संसद का काम रोका गया। नेशनल हेराल्ड का मसला न्यायालय के आदेश का भाग है। कांग्रेस ने इसे सरकारी षड्यंत्र बताया। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज व राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के त्यागपत्र मांगने के मुद्दे पर संसदीय कामकाज में अड़ंगा डाला गया। सत्तापक्ष ने संविधान सृजन व प्रवर्तन पर राष्ट्रीय उत्सव जैसी घोषणा की। इस अवसर पर संसद का सत्र हुआ। तब कांग्रेस और वामदल कथित असहिष्णुता पर अनावश्यक आलाप विलाप में संलग्न थे। जेएनयू में आतंकी अफजल की फांसी पर विलाप थे। तब राष्ट्र सन्न था, कांग्रेस प्रसन्न। कांग्रेस के खेवनहार राहुल गांधी ने ऐसे समूहों की हौसलाअफजाई की। रोहित वेमुला के मसले को कांग्रेस सहित अधिकांश विपक्ष ने तिल का ताड़ बनाया। विपक्ष बुनियादी सवालों से लगातार दूर रहा। 12014 के जनादेश ने देश के किसी भी दल को मान्यता प्राप्त विपक्षी दल लायक नहीं रखा। राष्ट्रीय दल कांग्रेस की सदस्य संख्या सिकुड़कर 44 रह गई। वामदल सहित अन्य पार्टियां भी सिकुड़ गईं। कांग्रेस ने जिम्मेदार विपक्षी दल की भूमिका नहीं निभाई। परंपरागत जिम्मेदार विपक्ष से प्रेरणा भी नहीं ली। कांग्रेस की दीर्घकालिक सत्ता के समय जनसंघ-भाजपा, लोहिया, सोशलिस्ट पहले किस्म के विपक्ष रहे हैं। कांग्रेस की विपक्षी जिम्मेदारी लंबी सत्ता के 22 बरस बाद तब शुरू हुई जब कांग्रेस टूट गई। सत्ता में बैठी कांग्रेस (आर यानी रूलिंग) और विपक्षी कांग्रेस (ओ) कहलाई। डॉ. राम सुभग सिंह विपक्ष के नेता थे, विपक्षी जिम्मेदारी का निर्वहन नहीं हुआ। जनसंघ और सोशलिस्ट ही कारगर विपक्ष थे। जनता सरकार (1977) के समय 153 सांसद होने के बावजूद कांग्रेस की विपक्षी भूमिका शून्य थी। यह अलग बात है कि जनता सरकार अपने अंतर्विरोधों में ही गिरी। कांग्रेस ने चौ. चरण सिंह को समर्थन दिया। मगर नेता विपक्ष का पद नहीं छोड़ा। वीपी सिंह की सरकार के समय राजीव गांधी नेता प्रतिपक्ष थे। कांग्रेस ने तब भी विपक्षी भूमिका नहीं निभाई। कांग्रेस ने चंद्रशेखर को समर्थन दिया। समर्थक दल होने के बावजूद राजीव गांधी ने नेता प्रतिपक्ष का पद नहीं छोड़ा। वह लोकसभाध्यक्ष के निर्देश पर हटे। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के समय कारगिल घुसपैठ हुई। प्रतिपक्षी कांग्रेस की बयानबाजी आपत्तिजनक थी। परमाणु परीक्षण पर संसदीय बहस में भी कांग्रेस ने पाकिस्तान जैसी बातें कहीं थीं। बीते दो साल में भी कांग्रेस ने वही दृष्टिकोण अपनाया है। ‘सूटबूट की सरकार’ के राहुल आरोप हास्यास्पद रहे हैं। सोनिया ने प्रधानमंत्री मोदी पर अहंकार का आरोप जड़ा था कि यह एक आदमी की सरकार है। तब प्रधानमंत्री ने उचित पलटवार किया था कि संप्रग सरकार के समय सोनियाजी ही वास्तविक सत्ता संचालक थीं, लेकिन अब सत्ता का संचालन संवैधानिक संस्थाओं द्वारा ही किया जा रहा है। कांग्रेस ने नीतिगत मसलों पर कोई सुझाव नहीं दिए और न ही वैकल्पिक विचार। बीते दो साल विपक्षी निराशा, हताशा और विध्वंस में ही गुजरे हैं। विरोध के लिए ही विरोध जारी है।1वामदल अप्रासंगिक और कालवाह्य हो रहे हैं। राहुल गांधी ने भी यह बात केरल के चुनाव अभियान में कही थी, लेकिन कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल में उसी कांग्रेस से समझौता किया। वामदलों ने बीते दो साल कोई जनअभियान नहीं चलाया। उत्तर भारत में इस नस्ल का अता पता नहीं। जद (यू) ने भी संसद में जिम्मेदार विपक्षी की भूमिका नहीं निभाई। बीजद ने बेशक दो एक बार अपने दृष्टिकोण में उचित का समर्थन व अनुचित के विरोध की बातें कहीं। सूखा, जलसंकट, गरीबी, शिक्षा, सर्वसमावेशी विकास और आंतरिक सुरक्षा जैसे मूलभूत प्रश्न विपक्ष के एजेंडे में नहीं आए। नरेंद्र मोदी ने 2013 में ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ की अपील की थी। उम्मीद थी कि कांग्रेस 2014 के जनादेश से सीखेगी। वह विपक्ष की भूमिका में गांधी, पटेल आदि के विचारनिष्ठ तेवर अपनाएगी। सरकार के अच्छे कामों का समर्थन करेगी। गलती का ही विरोध करेगी। बीते दो साल में कांग्रेस सहित अधिकांश विपक्ष सुझाव और मुद्दागत संघर्ष से दूर रहा है। विपक्ष ने पूरे दो बरस कोई सार्थक जनअभियान नहीं चलाया। सरकार के साथ विपक्ष का तीसरा साल शुरू हो रहा है। क्या कोई उम्मीद की जा सकती है कि विपक्ष तीसरे वर्ष रचनात्मक होगा?
(लेखक उप्र विधान परिषद में भाजपा विधायक दल के प्रमुख हैं,यह लेख २७ मई को दैनिक जागरण में प्रकाशित हुआ था )